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लेश्या-अध्ययन
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अध्ययन ३४ : श्लोक २२-४८ टि० १०-२०
१०. शंका से रहित (निद्धंधस)
शब्द 'समुदाय' के अर्थ में व्यवहृत होता है, उसका प्रयोग यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-अकृत्यसेवी।' वृत्ति एक-एक अवयव के लिए भी किया जा सकता है। में इसका अर्थ है-लौकिक और पारलौकिक अपायों की शंका १७. स्थिति (काल) (अद्धा) से अत्यंत विकल । इसका वैकल्पिक अर्थ है हिंसा के अध्यवसायों 'अध्या' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-काल और क्षेत्र। से अत्यंत अनपेक्ष।
यहां इसका काल अर्थ विवक्षित है। ११. नृशंस है (निस्संसो)
१८. (श्लोक ४५-४६) इसके संस्कृतरूप दो होते हैं-नृशंसः तथा निःशंसः। ४५वें श्लोक में शुक्ललेश्या का वर्जन और ४६ वें श्लोक नृशंस का अर्थ है-जीव हिंसा करने में निःशंक तथा निःशंस में शुक्ललेश्या का प्रतिपादन-दोनों केवली की अपेक्षा से हैं। का अर्थ है--दूसरों की प्रशंसा से रहित।
१९. (श्लोक ४६) १२. धर्म से दृढ़ है (दढधम्मे)
प्रस्तुत श्लोक में शुक्ल लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष स्थानांग सूत्र में चार प्रकार के पुरुष उल्लिखित हैं
न्यून एक करोड़ पूर्व की बतलाई गई है। वृत्तिकार का मत है (१) कुछ पुरुष प्रियधर्मा होते हैं, दृढ़थर्मा नहीं।
कि एक करोड़ पूर्व की आयुष्य वाला कोई पुरुष आठ वर्ष की (२) कुछ पुरुष दृढ़धर्मा होते हैं, प्रियधर्मा नहीं।
अवस्था में ही मुनि बन जाता है। उस वय में शुक्ल लेश्या (३) कुछ पुरुष प्रियधर्मा भी होते हैं और दृढ़धर्मा भी। संभव नहीं होती। एक वर्ष के मुनि-पर्याय के पश्चात् ही (४) कुछ पुरुष न प्रियधर्मा होते हैं और न दृढ़धर्मा। उसका उदय होता है। इसलिए यहां नौ वर्ष न्यून की बात कही
बृहद्वृत्ति में दृढ़धर्मा का अर्थ- 'स्वीकृत व्रतों का निर्वहन गई है। करने वाला'—किया है।'
प्रव्रज्या नौवें वर्ष में प्राप्त होती है इसका समर्थन १३. पापभीरु है (वज्जभीरू)
भगवती से होता है। वहां दीक्षा-पर्याय का कालमान देशून नौ वज्ज और अवज्ज—ये दो शब्द हैं। वज्ज का संस्कृत वर्ष न्यून करोड पूर्व बतलाया गया है।" इससे फलित होता है रूप 'वा' और अवज्ज का 'अवद्य' है। दोनों का अर्थ कि दीक्षा कुछ कम नौ वर्ष की अवस्था में प्राप्त होती है, एक-सा है। वृत्तिकार ने वज्ज को अवज्ज मानकर उसके आठवें वर्ष में नहीं। बृहत्कल्प भाष्य में दीक्षा की न्यूनतम आयु अकार का लोप माना है। किन्तु यह आवश्यक नहीं है। वज्ज साधिक आठ वर्ष की है। इसका तात्पर्य है कि जब मुमुक्षु सवा (वर्य) ही अपने अर्थ की अभिव्यक्ति में सक्षम है।
आठ वर्ष का हो जाता है तब गर्भ के नौ मास मिलाने पर नौंवें १४. अत्यल्पभाषी है (पयणुवाई)
वर्ष में उसे दीक्षा प्राप्त हो सकती है। इसके दो अर्थ होते हैं—मितभाषी तथा धीमे बोलने २०. (श्लोक ४८) वाला। वृत्ति में इसका अर्थ मितभाषी किया है।
भवनपति और व्यन्तर देवों के कृष्ण लेश्या की जघन्य १५. अन्तर्मुहूर्त (मुहुत्तद्ध)
स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के यहां 'अद' आधे का अर्थ..एक का समप्रविभाग असंख्यातवें भाग की कही गई है। इसका तात्पर्य यह है कि आधा नहीं है। इसका अर्थ नुहूर्त का एक भाग, दो भाग या तीन इन देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की होती है, इसलिए भाग भी हो सकता है। तात्पर्य है-अपूर्ण, मुहूर्त, अन्तर, मुहूर्त। कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति भी इतनी ही होगी। उत्कृष्ट १६. अन्तर्मुहूर्त अधिक (मुहुत्तहिया)
स्थिति का जो उल्लेख है वह मध्यम आयुष्य वाले इन देवों की मुहूर्त अधिक का तात्पर्यार्थ है अन्तमुहूर्त अधिक। जो अपर
१. देशीशब्दकोश-णिद्धंधसो-देशीवचनमेतत् अकृत्यं प्रतिसेवमानः मित्युक्तं भवति। (व्यभा १ टी प १२)
६. वही, पत्र ६५८ : मुहुत्तहियं त्ति इहोत्तरत्र च मुहूर्तशब्देन मुहूर्तेकदेश २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५६ : णिद्धंधस त्ति अत्यन्तमैहिकामुष्मिकापायशंका- एवोक्ताः, समुदायेषु हि प्रवृत्ता शब्दा अवयवेष्यपि वर्त्तन्ते यथा ग्रामो विकलोऽत्यन्तं जन्तुबाधानपेक्षो वा।
दग्धः पटो दग्ध इति। ३. वही, पत्र ६५६ : णिस्संसो त्ति नृशंसः निस्तूंशो जीवान् विहिंसन् १०. वही, पत्र ६६० : इह च यद्यपि कश्चित् पूर्वकोट्यायुरष्टवार्षिक एव मनागपि न शंकते, निःशंसो वा-परप्रशंसारहितः।
व्रतपरिणाममाप्नोति तथापि नैतावद् वयःस्थस्य वर्षपर्यायाद् अर्वाक् ४. ठाणं ४।४२१॥
शुक्ललेश्यायाः सम्भव इति नवभिर्वर्षयूंना पूर्वकोटिरुच्यते। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५६ : दृढधर्मा-अंगीकृतव्रतादिनिर्वाहकः ।
११. भगवई २५१५३३ : सामाइयसंजए णं भंते ! कालओ केवच्चिर होई? ६. वही, पत्र ६५६-६५७ : वज्जत्ति वयं प्राकृतत्वाद् अकारलोपे अवध, गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणएहिं नवहिं वासेहिं चोभयत्र पापं....।
ऊणिया पुचकोडी। एवं छेदोवट्ठावणिए वि। ७. वही, पत्र ६५७ : प्रतनुवादी-स्वल्पभाषकः ।
१२. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६०: एवंविधविमध्यमायुषामेव भवनपतिव्यन्तराणामिय ८. वही, पत्र ६५८ : इह च समप्रविभागस्य अविवक्षितत्वाद् अन्तर्मुहूर्त- द्रष्टव्या।
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