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आमुख
चा)
इस अध्ययन का नाम 'लेसज्झयणं'-'लेश्या-अध्ययन' लेश्या की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। जैसेहै। इसका अधिकृत विषय कर्म-लेश्या है। इसमें कर्म-लेश्या १. योग-परिणाम। के नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, २. कषायोदयरंजित योग-प्रवृत्ति। स्थिति, गति और आयुष्य का निरूपण किया गया है। इसका ३. कर्म-निस्यन्द। विशद वर्णन प्रज्ञापना (पद १७) में मिलता है।
४. कार्मण शरीर की भांति कर्म-वर्गणा निष्पन्न कर्म-द्रव्य । लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। इसकी इन शास्त्रीय परिभाषाओं के अनुसार लेश्या से जीव खोज जीव और पुद्गल के स्कंधों का अध्ययन करते समय हुई ओर कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होता है, कर्म की स्थिति निष्पन्न है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव होती है और कर्म का उदय होता है। इन सारे अभिमतों से को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक वर्ग हैं। उनमें एक इतनी निष्पत्ति तो निश्चित है कि आत्मा की शुद्धि और वर्ग का नाम लेश्या है। लेश्या शब्द का अर्थ आणविक-आभा, अशुद्धि के साथ लेश्या जुड़ी हुई है। कांति, प्रभा या छाया है। छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले प्रभाववाद की दृष्टि से दोनों परम्पराएं प्राप्त होती हैंजीव-परिणामों को भी लेश्या कहा गया है। प्राचीन साहित्य में १. पौलिक लेश्या का मानसिक विचारों पर प्रभाव । शरीर के वर्ण, आणविक-आभा और उससे प्रभावित होने वाले २. मानसिक विचारों का लेश्या पर प्रभाव। विचार-इन तीनों अर्थों में लेश्या की मार्गणा की गई है।
कृष्णादिदव्यासाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः। शरीर के वर्ण और आणविक-आभा को द्रव्य-लेश्या' स्फटिकस्येव तवायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते।। (पीद्गलिक-लेश्या) और विचार को भाव-लेश्या" (मानसिक-लेश्या) इस प्रसिद्ध श्लोक की ध्वनी यही है--कृष्ण आदि कहा गया है।
लेश्या-पुद्गल जैसे होते हैं, वैसे ही मानसिक परिणति होती है। प्रस्तुत अध्ययन में कृष्ण, नील और कापोत—इस प्रथम दूसरी धारा यह है—कपाय की मंदता से अध्यवसाय की शुद्धि त्रिक को 'अधर्म-लेश्या' और तेजस्, पद्म और शुक्ल-इस होती है और अध्यवसाय की शुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती द्वितीय त्रिक को 'धर्म-लेश्या' कहा गया है। (श्लो० ५६,५७) है।" प्रस्तुत अध्ययन से भी यही ध्वनित होता है।
अध्ययन के आरम्भ में छहों लेश्याओं को 'कर्म-लेश्या' पांच आश्रवों में प्रवृत्त मनुष्य कृष्ण-लेश्या में परिणत कहा गया है। (श्लो०१)
होता है अर्थात् उसकी आणविक-आभा (पर्यावरण) कृष्ण आणविक-आभा कर्म-लेश्या का ही नामान्तर है। आठ होती है। लेश्या के लक्षण गोम्मटसार (जीवकांड ५०८-५१६) कों में छठा कर्म नाम है। उसका सम्बन्ध शरीर-रचना तथा तत्त्वार्थ-वार्तिक (४२२) में मिलते हैं। सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीर-नामकर्म है। मनुस्मृति (१२।२६-३८) में सत्त्व, रजस् और तमस् के शरीर-नामकर्म के पुद्गलों का ही एक वर्ग 'कर्म-लेश्या' जो लक्षण और कार्य बतलाए गए हैं, वे लेश्या के लक्षणों से कहलाता है।
तुलनीय हैं। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४१ : अहिगारो कम्मलेसाए।
शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यलेश्या। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५० : लेश्याति–श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति ७. वही, पत्र ६५० : यदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता—योगपरिणामो लेश्या...। लेश्या-अतीव चक्षुराक्षपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया।
८. गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा ४६०: ३. मूलाराधना, ७।१९०७ :
जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होइ। जह वाहिरलेस्साओ, किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५० : गुरवस्तु व्याचक्षते-कर्मनिस्यन्दो लेश्या। अब्भन्तरलेस्साओ, तह किण्हादीय पुरिसस्स ।।
१०. वही, पत्र ६५१; अन्ये त्वाहु:-कार्मणशरीरवत् पृथगेव कर्माष्टकात् (क) गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा, ४६४ :
कर्मवर्गणानिध्यन्नानि कर्मलेश्याद्रव्याणांति, तत्त्वं तु पुनः केवलिनो विदन्ति । वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दचओ लेस्सा।
११. (क) मूलाराधना, ७।१९११ : सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ।।
लेस्सासोधी अज्झवसाणाविसोधीए होइ जनस्स। (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५३६।
अज्झवसाणविसोधी, मंदलेसायस्स णादव्वा।। उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४० :
(ख) मूलाराधना (अमितगति), ७११६६७ : दुविहा उ भावलेसा विसुद्धलेसा तहेव अविसुद्धा।
अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः सम्पद्यते बहिः। दुविहा विसुद्धलेसा, उवसमखइआ कसायाणं ।।
ब्राह्मो हि शुध्यते दोषः सर्वमन्तरदोषतः।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५० : इह च कर्मद्रव्यलेश्येति सामान्याभिधानेपि
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