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इस अध्ययन में प्रमाद के कारण तथा उनके निवारण के उपायों का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए इसका नाम 'पमायट्ठाणं' - 'प्रमादस्थान' है। प्रमाद साधना का विघ्न है। उसका निवारण कर साथक जितेन्द्रिय बनता है। प्रमाद के प्रकारों का विभिन्न क्रमों में संकलन हुआ है :
१. प्रमाद के पांच प्रकार :
मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा ।
२. प्रमाद के छह प्रकार --
मद्य, निद्रा, विषय, कपाय, द्यूत और प्रतिलेखना । ३. प्रमाद के आठ प्रकार-
आमुख
अज्ञान, संशय, मिथ्या ज्ञान, राग, द्वेष, स्मृति भ्रंश, धर्म में अनादर, मन, वचन और काया का दुष्प्रणिधान ।
मानसिक, वाचिक और कायिक इन सभी दुःखों का मूल है विषयों की सतत आकांक्षा ।
विषय आपात - भद्र ( सेवन काल में सुखद) होते हैं किन्तु उनका परिणाम विरस होता है। शास्त्रकारों ने उन्हें 'किंपाक फल' की उपमा से उपमित किया है। (श्लोक १६, २०)
आकांक्षा के मूल हैं-राग और द्वेष । वे संसार भ्रमण के हेतु हैं। उनकी विद्यमानता में वीतरागता नहीं आती। वीतराग-भाव के बिना जितेन्द्रियता सम्मपन्न नहीं होती।
जितेन्द्रियता का पहला साधन है-आहार-विवेक साधक को प्रणीत आहार नहीं करना चाहिए। अतिमात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए। वार-बार नहीं खाना चाहिए। प्रणीत या अति मात्रा में किया हुआ आहार उद्दीपन करता है, उससे वासनाएं उभरती हैं और मन चंचल हो जाता है।
३.
इसी प्रकार एकांतवास, अल्पभजन, विषय में अननुरक्ति, दृष्टि- संयम, मन, वाणी और काया का संयम, चिन्तन की पवित्रता – ये भी जितेन्द्रिय बनने के साधन हैं।
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प्रथम २१ श्लोकों में इन उपायों का विशद निरूपण
9.
उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ५२०
२. ठाणं ६४४ छब्बिहे पमाए पण्णतेतं जहा मज्जपमाए, णिद्दपमाए, विसमाए, कसाथमाए, जूतपमाए, पडिलेहणाप्रमाए ।
प्रवचन सारोद्धार, द्वार २०७, गाथा ११२२, ११२३
माओ य मुणिदेहिं भणिओ अट्टभेयओ। अन्नाणं संसओ चेव, मिच्छानाणं तहेव य ।। रागो दोषी मइब्भंसो, धम्मम्मि य अणायरो ।। जोगाणं दुप्पणीहाणं, अद्रुहा वज्जियव्वओ ।।
४ (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५२३,५२४ : वाससहस्सं उग्गं तवमाइगरस्स आयरंतस्स । जो किर पमायकालो अहोरनं तु संकलिअं ।।
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क्या
हुआ है। पांच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने से क्यादोष उत्पन्न होते हैं? उनके उत्पादन, संरक्षण और व्यापरण से क्या-क्या दुःख उत्पन्न होते हैं ? इन प्रश्नों का स्पष्ट समाधान मिलता है।
जब तक व्यक्ति इन सब उपायों को जानकर अपने आचरण में नहीं उतार लेता तब तक वह दुःखों के दारुण परिणामों से नहीं छूट सकता।
विषय अपने आप में अच्छा था बुरा कुछ भी नहीं है। वह व्यक्ति के राग-द्वेष से सम्मिश्रित होकर अच्छा या बुरा वनता है । इन्द्रिय तथा मन के विषय वीतराग के लिए दुःख के हेतु नहीं हैं, राग-ग्रस्त व्यक्ति के लिए वे परम दारुण परिणाम वाले हैं। इसलिए बन्धन और मुक्ति अपनी ही प्रवृत्ति पर अवलम्बित है।
जो साधक इन्द्रियों के विषयों के प्रति विरक्त है, उसे उनकी मनोज्ञता या अमनोज्ञता नहीं सताती। उसमें समता का विकास होता है। साम्य के विकास से काम-गुणों की तृष्णा का नाश हो जाता है और साधक उत्तरोत्तर गुणस्थानों में आरोह करता हुआ लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। (श्लोक १०६, १०७, १०८)
साधना की दृष्टि से इस अध्ययन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। अप्रमाद ही साधना है। साधक को प्रतिपल अप्रमत्त या जागरूक रहना चाहिए। निर्युक्तिकार ने बताया है कि भगवान् ऋषभ साधना में प्रायः अप्रमत्त रहे। उनका साधना-काल हजार वर्ष का था। उसमें प्रमाद काल एक दिन-रात का था। भगवान् महावीर ने बारह वर्ष और तेरह पक्ष तक साधना की । उसमें प्रमाद काल एक अन्तमुहूर्त का था। दोनों तीर्थंकरों के प्रमाद - काल को नियुक्तिकार ने 'संकलित - काल' कहा है । इसका तात्पर्य यह है कि एक दिन-रात और एक अन्तर्मुहूर्त का प्रमाद एक साथ नहीं हुआ था। किन्तु उनके साधना-काल में जो प्रमाद हुआ, उसे संकलित किया जाए तो वह एक दिन-रात और एक अन्तर्मुहूर्त का होता है।"
बारसवासे अहिए, तवं चरंतस्स वज्रमाणस्स । जो फिर पमायकालो, अंतमुहुत्तं तु संकलिअं ।।
(ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ६२० : किमयमेकावस्थाभाविनः प्रमादस्य काल उतान्यथेत्याशंकयाह - संकलितः, किमुक्तं भवति ? - अप्रमादगुणस्थानस्यान्तमौहूर्निकत्वेनानेकशोऽपि प्रमादप्राप्तौ तदवस्थितिविषयभृतस्यान्तर्मुहूर्त्तस्याखयेयभेदत्वात्तेषामतिसूक्ष्मतया सर्वकालसङ्कलनायामप्यहोरात्रमेवाभृत् । तथा द्वादश वर्षाण्यधिकानि तपश्चरतो वर्द्धमानस्य यः किल प्रमादकालः प्राग्वत्सो ऽन्तर्मुहूर्त्तमेव सङ्कलितः, इताभ्यन्तर्मुहर्त्तानामसदेयभेदत्वात्प्रमादस्थितिविषपान्त सूक्ष्मत्वं, संकलनान्तर्मुहूर्त्तस्य च बृहत्तरत्वमिति भावनीयम् ।
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