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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३२ : श्लोक ८-१६ दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो दुःखं हतं यस्य न भवति मोहो जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा। मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा। दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश तण्हा हया जस्स न होइ लोहो तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का लोहो हओ जस्स न किंचणाइं।। लोभो हतो यस्य न किंचनानि।। नाश कर दिया। जिसके पास कुछ नहीं है, उसने
लोभ का नाश कर दिया। ६. रागं च दोसं च तहेव मोहं रागं च दोषं च तथैव मोह राग, द्वेष और मोह का मूल सहित उन्मूलन चाहने
उद्धत्तुकामेण समूलजालं। उद्धर्तुकामेन समूलजालम्। वाले मनुष्य को जिन-जिन उपायों का आलम्बन जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा ये ये उपायाः प्रतिपत्तव्याः लेना चाहिए उन्हें मैं क्रमशः कहूंगा।
ते कित्तइस्सामि अहाणुपुब्दि।। तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्वि।। १०. रसा पगामं न निसेवियव्वा रसाः प्रकामं न निषेवितव्याः रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए।
पायं रसा दित्तिकरा नराणं। प्रायो रसा दृप्तिकरा नराणाम्। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। दित्तं च कामा समभिद्दवंति दृप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं उसे काम-भोग सताते
दुमं जहा साउफलं व पक्खी।। दुर्म यथा स्वादुफलमिव पक्षिणः।। हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। ११. जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर इन्धन वाले वन
समारुओ नोवसमं उवेइ। समारुतो नोपशममुपैति। में लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी एविंदियग्गी वि पगामभोइणो एवमिन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजिनो प्रकार अतिमात्र खाने वाले की इन्द्रियाग्नि-कामाग्नि न बंभयारिस्स हियाय कस्सई।। न ब्रह्मचारिणो हिताय कस्यचित्।। शान्त नहीं होती। इसलिए अतिमात्र भोजन किसी
भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता। १२. विवित्तसेज्जासणजंतियाणं विविक्तशय्यासनयन्त्रितानां जो एकान्त बस्ती और एकान्त आसन से नियंत्रित
ओमासणाणं दमिइंदियाणं।। अवमाशनानां दमितेन्द्रियाणाम्।। होते हैं, जो कम खाते हैं और जितेन्द्रिय होते हैं, न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं न रागशत्रुर्धर्षयति चित्तं उनके चित्त को राग-शत्रु वैसे ही आक्रान्त नहीं कर पराइओ वाहिरिवोसहेहिं। पराजितो व्याधिरिवौषधैः।। सकता जैसे औषध से पराजित रोग देह को।
१३. जहा बिरालावसहस्स मूले यथा बिडालावसथस्य मूले
न मूसगाणं वसही पसत्था। न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता। एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये न बंभयारिस्स खमो निवासो।। न ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः ।।
जैसे विल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास ब्रह्मचारी का रहना अच्छा नहीं होता।
१४. न रूवलावण्णविलासहासं
न रूपलावण्यविलासहासं न जंपियं इंगियपेहियं वा।।
न जल्पितमिगितं प्रेक्षितं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता स्त्रीणां चित्ते निवेश्य दटुं ववस्से समणे तवस्सी।। दष्टुं व्यवस्येत् श्रमणस्तपस्वी।।
तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर आलाप, इङ्गित और चितवन को चित्त में रमा कर उन्हें देखने का संकल्प न करे।
१५. अदंसणं चेव अपत्थणं च अदर्शनं चैवाप्रार्थनं च
जो सदा ब्रह्मचर्य में रत हैं, उनके लिए स्त्रियों को अचिंतणं चेव अकित्तणं च। अचिन्तनं चैवाकीर्तनं च। न देखना, न चाहना, न चिन्तन करना और न इत्थीजणस्सारियझाणजोग्गं
स्त्रीजनस्य आर्यध्यानयोग्यं वर्णन करना हितकर है तथा आर्य-ध्यान-धर्म-ध्यान हियं सया बंभवए रयाणं ।। हितं सदा ब्रह्मव्रते रतानाम्।। के लिए उपयुक्त है। १६. कामं तु देवीहि विभूसियाहिं
कामं तु देवीभिर्विभूषिताभिः यह ठीक है कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को न चाडया खोभइ तिगत्ता। न शक्ताः क्षोभयितुं त्रिगुप्ताः। विभूषित देवियां भी विचलित नहीं कर सकती. फिर तहा वि एगंतहियं ति नच्चा
तथाप्येकान्तहितमिति ज्ञात्वा भी भगवान ने एकान्त हित की दृष्टि से उनके विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो।।।
विविक्तवासो मुनीनां प्रशस्तः।। विविक्त-वास को प्रशस्त कहा है।
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