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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३२ : श्लोक ६२-७०
६२. रसस्स जिब्भं गहणं वयंति रसस्य जिहां ग्रहणं वदन्ति रसना रस का ग्रहण करती है। रस रसना का ग्राह्य
जिब्भाए रसं गहणं वयंति। जिहाया रसं ग्रहणं वदन्ति। है। जो रस राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतु समनोज्ञमाहुः
जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है। ६३. रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं रसेषु यो गृद्धिमुपैति तीवां जो मनोज्ञ रसों में तीव्र आसक्ति करता है, वह
अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे मांस रागाउरे बडिसविभिन्नकाए रागातुरो बडिशविभिन्नकायः खाने में गृद्ध बना हुआ रागातुर मत्स्य कांटे से
मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे।। मत्स्यो यथा आमिषभोगगृद्धः।। बींधा जाता है। ६४. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो मनोज्ञ रस से तीव्र द्वेष करता है, वह अपने
तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। रस दुइंतदोसेण सएण जंतू दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः उसका कोई अपराध नहीं करता।
रसं न किंचि अवरज्झई से।। रसो न किंचिद् अपराध्यति तस्य।। ६५. एगंतरत्ते रुइरे रसम्मि एकान्तरक्तो रुचिरे रसे जो मनोहर रसों में एकान्त अनुरक्त रहता है और
अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स करोति प्रदोषम्।। अमनोहर रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति बाल: पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमें
न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।। लिप्त नहीं होता। ६६. रसाणुगासाणुगए य जीवे रसानुगाशानुगतश्च जीवः मनोहर रस की अभिलाषा के पीछे चलने वाला
चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटूठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के चराचर
जीवों को परितप्त और पड़ित करता है। ६७. रसाणुवाएण परिग्गहेण रसानुपातेन परिग्रहेण रस में अनुराग और ममत्व का भाव होने के कारण
उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार करता वए विओगे य कहिं सहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन सबमें संभोगकाले य अतित्तिलाभ।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। उसे सुख कहा है? और क्या, उसके उपभोग-काल
में भी उसे अतृप्ति ही होती है। ६८. रसे अतित्ते य परिग्गहे य रसे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो रस में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेिं।। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम्। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त
लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम्।। होकर दूसरे की रसवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ६६. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिण: वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और
रसे अतित्तस्स परिग्गहे य। रसे अतृप्तस्य परिग्रहे च। रस-परिग्रह में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वर्द्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं
होता।
७०. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च परस्ताच्च
पओगकाले य दुही दुरते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः।। एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः रसे अतित्तो दहिओ अणिस्सो।। रसे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।।
असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय होता है। इस प्रकार वह रस में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रय-हीन हो जाता है।
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