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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३२ : श्लोक ८०-८८ ८०. फासाणुवाएण परिग्गहेण स्पर्शानुपातेन परिग्रहेण स्पर्श में अनुराग और ममत्व का भाव होने के
उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले चातृप्तिलाभः ।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके
उपभोग-काल में भी उसे तृप्ति नहीं मिलती। ८१. फासे अतित्ते य परिग्गहे य स्पर्श अतृप्तश्च परिग्रहे च जो स्पर्श में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में
सत्तोवसत्तो न उवेई तुहिँ। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम्। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असन्तुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त
लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की स्पर्शवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ८२. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और
फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। स्पर्शेऽतृप्तस्य परिग्रहे च। स्पर्श-परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वर्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं
होता। ८३. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च पुरस्ताच्च असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय
पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह स्पर्श में अतृप्त होकर फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। स्पर्श अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।। चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता
८४. फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं स्पर्शानुरक्तस्य नरस्यैवं स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित्
कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत् कदापि किंचित् ? किंचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी
निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निर्वर्त्तयति यस्य कृते दुःखम् ।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। ८५. एमेव फासम्मि गओ पओसं एवमेव स्पर्श गतः प्रदोषम् इसी प्रकार जो स्पर्श में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर
उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेषयुक्त चित्त वाला पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है। वही परिणाम-काल
जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है। ८६. फासे विरत्तो माओ विसोगो स्पर्श विरक्तो मनुजो विशोक: स्पर्श से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण।
जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् ही वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा
जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। से लिप्त नहीं होता। ८७. मणस्स भावं गहणं वयंति मनसो भावं ग्रहणं वदन्ति भाव मन का ग्राह्य-विषय है। जो भाव राग का
तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः। हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं त अमणण्णमाह तं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः ।।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ भावों में समान रहता है, वह
वीतराग होता है। ५८. भावस्स मणं गहणं वयंति भावस्य मनो ग्रहणं वदन्ति मन भाव का ग्रहण करता है। भाव मन का ग्राह्य
मणस्स भावं गहणं वयंति। मनसः भावं ग्रहणं वदन्ति। है। जो भाव राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहु: जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है।
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