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आमुख
इसलिए इस शब्द भारत सभी दर्शना अस्वीकार
इस अध्ययन में कर्म की प्रकृतियों का निरूपण है, ३. वेदनीय दो प्रकार का है-(१) सात वेदनीय और । इसलिए इसका नाम 'कम्मपयडी'-'कर्मप्रकृति' है।
(२) असात वेदनीय। _ 'कर्म' शब्द भारतीय दर्शन का बहुत परिचित शब्द है। ४. मोहनीय दो प्रकार का हैजैन, बौद्ध और वैदिक-सभी दर्शनों ने इसे मान्यता दी है। (१) दर्शन मोहनीय। इसके तीन भेद हैं सम्यक्त्व यह क्रिया की प्रतिक्रिया है, अतः इसे अस्वीकार भी नहीं किया मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और सम्यक् मिथ्यात्व मोहनीय। जा सकता। वैदिक आदि दर्शन कर्म को संस्कार रूप में (२) चारित्र मोहनीय। यह दो प्रकार का है-कषाय स्वीकार करते हैं। जैन-दर्शन की व्याख्या उनसे विलक्षण है। मोहनीय और नो-कषाय मोहनीय। उसके अनुसार कर्म पौद्गलिक है। जब-जब जीव शुभ या कषाय मोहनीय १६ प्रकार का हैअशुभ प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है तब-तब वह अपनी प्रवृत्ति से अनन्तानुबन्धी चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । पुद्गलों का आकर्षण करता है। वे आकृष्ट पुद्गल आत्मा के अप्रत्याख्यान चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । परिपार्श्व में अपने विशिष्ट रूप और शक्ति का निर्माण करते प्रत्याख्यान चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । हैं। उन्हें कर्म कहा जाता है।
संज्चलन चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । कर्म की मूल प्रवृत्तियां आठ हैं
नो-कषाय मोहनीय नौ प्रकार का है१. ज्ञानावरण-जो पुद्गल ज्ञान को आवृत करते हैं। हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, स्त्री वेद, २. दर्शनावरण-जो पुद्गल दर्शन को आवृत करते नपुंसक वेद।
५. आयुष्य चार प्रकार का है-नैरयिक आयु, तिर्यग् ३. वेदनीय-जो पुद्गल सुख-दुःख के हेतु बनते हैं। आयु, मनुष्य आयु और देव आयु। ४. मोहनीय-जो पुद्गल दृष्टिकोण ओर चारित्र में ६. नाम दो प्रकार का है--शुभ और अशुभ। विकार उत्पन्न करते हैं।।
इन दोनों के अनेक अवान्तर भेद हैं। आयुष्य-जो पुद्गल जीवन-काल को निष्पन्न करते ७. गोत्र दो प्रकार का है—उच्च गोत्र और नीच गोत्र।
उच्च गोत्र-कर्म के आठ भेद हैं६. नाम-जो पुद्गल शरीर आदि विविध रूपों की (१) प्रशस्त जाति, (५) प्रशस्त तपस्या, प्राप्ति के हेतु होते हैं।
(२) प्रशस्त कुल, (६) प्रशस्त श्रुत (ज्ञान), ७. गोत्र-जो पुद्गल उच्चता या नीचता की अनुभूति (३) प्रशस्त बल, (७) प्रशस्त लाभ, में हेतु होते हैं।
(४) प्रशस्त रूप, (८) प्रशस्त ऐश्वर्य । ८. अन्तराय—जो पुद्गल शक्ति-विकास में बाधक होते नीच गोत्र-कर्म के आठ भेद हैं
(१) अप्रशस्त जाति, (५) अप्रशस्त तपस्या, १. ज्ञानावरण पांच प्रकार का है---
(२) अप्रशस्त कुल, (६) अप्रशस्त श्रुत (ज्ञान), (१) आभिनिवोधिक (मति) ज्ञानावरण,
(३) अप्रशस्त बल, (७) अप्रशस्त लाभ, (२) श्रुतज्ञानावरण,
(४) अप्रशस्त रूप, (८) अप्रशस्त ऐश्वर्य। (३) आवधि ज्ञानावरण,
८. अन्तराय-कर्म पांच प्रकार का है-दानान्तराय, (४) मनःपर्यव ज्ञानावरण
लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। (५) केवल ज्ञानावरण।
१. कर्मों की प्रकृति २. दर्शनावरण नौ प्रकार का है
___ कर्म की मूल प्रकृतियां उपर्युक्त आठ ही हैं। शेष सब (१) निद्रा, (६) चक्षुदर्शनावरण,
उनकी उत्तर प्रकृतियां हैं। इनका विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना (पद (२) प्रचला, (७) अचक्षुदर्शनावरण,
२३) में है। (३) निद्रा-निद्रा, (८) अवधिदर्शनावरण,
२. कर्मों की स्थिति(४) प्रचला-प्रचला, (६) केवलदर्शनावरण।
प्रत्येक कर्म की स्थिति होती है। स्थिति-काल के पूर्ण (५) स्त्यानद्धि,
होने पर वह कर्म नष्ट हो जाता है। कई निमित्तों में स्थिति
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