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प्रमादस्थान
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अध्ययन ३२ : श्लोक ७१-७६
७१. रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं रसानुरक्तस्य नरस्यैवं
रस में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत् कदापि किंचित् ?/ किंचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी
निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ?।। निर्वर्त्तयति यस्य कृते दुःखम्।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है ७२. एमेव रसम्मि गओ पओसं एवमेव रसे गतः प्रदोषम् इसी प्रकार जो रस में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर
उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेष-युक्त चित्त पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कम का बन्ध करता है। वही जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। परिणाम-काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता
७३. रसे विरत्तो मणुओ विसोगो रसे विरक्तो मनुजो विशोकः रस से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे
एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण । कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा से
जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। ७४. कायस्स फासं गहणं वयंति कायस्य स्पर्श ग्रहणं वदन्ति स्पर्श काय का ग्राह्य विषय है। जो स्पर्श राग का
तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु तं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः।।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों में समान रहता है, वह
वीतराग होता है। ७५. फासस्स कायं गहणं वयंति स्पर्शस्य कार्य ग्रहणं वदन्ति काय स्पर्श का ग्रहण करता है। स्पर्श काय का ग्राह्य
कायस्स फासं गहणं वयंति। कायस्य स्पर्श ग्रहणं वदन्ति। है। जो स्पर्श राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ
दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है। ७६. फासेस जो गिद्धिमवेड तिव्वं स्पशेषु यो गृद्धिमुपैति तीवा जो मनोज्ञ स्पर्शों में तीव्र आसक्ति करता है, वह
अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे रागाउरे सीयजलावसन्ने रागातुरः शीतजलावसन्नः घड़ियाल के द्वारा पकड़ा हुआ, अरण्य-जलाशय के
गाहग्गहीए महिसे वरण्णे।। ग्राहगृहीतो महिष इवारण्ये।। शीतल जल में स्पर्श में मग्न बना, रागातुर भैंसा। ७७.जे यावि दोसं समवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो अमनोज्ञ स्पर्श में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने
तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दम दोष से. उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। दुइंतदोसेण सएण जंतु दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तु: । स्पर्श उसका कोई अपराध नहीं करता।
न किंचि फासं अवरज्झई से।। न किंचित् स्पोऽपराध्यति तस्य।। ७८. एगंतरत्ते रुइरंसि फासे एकान्तरक्तो रुचिरे स्पर्श जो मनोहर स्पर्श में एकान्त अनुरक्त होता है और
अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स करोति प्रदोषम्। अमनोहर स्पर्श से द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले
दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः । दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।। मुनि उनमें लिप्त नहीं होता।
७६. फासाणुगासाणुगए य जीवे स्पर्शानुगाशानुगतश्च जीवः चराचरे हिंसइणेगरूवे।
चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्। चित्तेहि ते परितावेइ बाले
चित्रैस्तान् परितापयति बालः पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटूठे।। पाडयत्यात्माथगुरुः क्लिष्टः।।
मनोहर स्पर्श की अभिलाषा के पीछे चलने वाला पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है।
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