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प्रमादस्थान
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अध्ययन ३२ : श्लोक ३५-४३ ३५. सोयस्स सदं गहणं वयंति श्रोत्रस्य शब्द ग्रहणं वदन्ति शब्द श्रोत्र का ग्राह्य-विषय है। जो शब्द राग का
तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं अमणण्णमाहुतं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः।।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में समान रहता है, वह
वीतराग होता है। ३६. सद्दस्स सोयं गहणं वयंति शब्दस्य श्रोत्रं ग्रहणं वदन्ति श्रोत्र शब्द का ग्रहण करता है। शब्द श्रोत्र का ग्राह्य
सोयस्स सई गहणं वयंति। श्रोत्रस्य शब्दं ग्रहणं वदन्ति। है। जो शब्द राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ
दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है। ३७. सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं शब्देषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र आसक्ति करता है, वह
अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे शब्द रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे रागातुरः हरिणमृग इव मुग्धः में अतृप्त बना हुआ रागातुर मुग्ध हरिण नामक
सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ।। शब्दे अतृप्तः समुपैति मृत्युम्।। पशु" मृत्यु को प्राप्त होता है। ३८. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो मनोज्ञ शब्द में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने
तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है, दुइंतदोसेण सएण जंतू दुन्तिदोषेण स्वकेन जन्तुः शब्द उसका कोई अपराध नहीं करता।
न किंचि सई अवरज्झई से।। न किंचिच्छब्दोऽपराध्यति तस्य।। ३६. एगंतरत्ते रुइरंसि सद्दे एकान्तरक्तो रुचिरे शब्दे जो मनोहर शब्द में एकान्त अनुरक्त होता है और
अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स कुरुते प्रदोषम् । अमनोहर शब्द में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति बाल: दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त
न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।।। मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। ४०. सद्दाणुगासाणुगए य जीवे शब्दानुगाशानुगतश्च जीवः मनोहर शब्द की अभिलाषा के पीछे चलने वाला
चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्।। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा चित्तेहि ते परियावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन
चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। ४१. सद्दाणुवाएण परिग्गहेण शब्दानुपातेन परिग्रहेण शब्द में अनुराग और ममत्व का भाव होने के
उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है, इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः ।।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके
उपभोग-काल में उसे अतृप्ति ही होती है। ४२. सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य: शब्दे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो शब्द में अतृप्त होता है, उसके परिग्रहण में
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेिं। सक्तोपसक्तो नापति तुष्टिम् । आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य । वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त
लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की शब्दवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ४३. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो । तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और
सट्टे अतित्तस्स परिग्गहे य। शब्देऽतृप्तस्य परिग्रहे च। शब्द परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वद्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं
होता।
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