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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३१ : श्लोक ११-१३ टि० १८-२३
(४) पोषधोपवास निरत,
अदत्तादान से होने वाली हिंसा। (५) दिन में ब्रह्मचारी और रात्रि में परिमाण करने (८) आध्यात्मिक बाह्य निमित्त के बिना, मन में स्वतः वाला
उत्पन्न होने वाली हिंसा। दिन और रात में ब्रह्मचारी, स्नान न करने वाला, (E) मान-प्रत्यय--जाति आदि के भेद से होने वाली दिन में भोजन करने वाला और कच्छ न बांधने वाला।
हिंसा। (७) सचित्त-परित्यागी,
(१०) मित्र-द्वेष-प्रत्यय---माता-पिता या दास-दासी के (८) आरम्भ-परित्यागी,
अल्प अपराध में भी बड़ा दण्ड देना। (E) प्रेष्य-परित्यागी,
(११) माया-प्रत्यय-माया से होने वाली हिंसा। (१०) उद्दिष्ट-भक्त परित्यागी,
(१२) लोभ-प्रत्यय-लोभ से होने वाली हिंसा। (११) श्रमण-भूत।
(१३) ऐर्यापथिक-केवल योग (मन, वचन और काया देखिए—समवाओ, समवाय ११।
___की प्रवृत्ति) से होने वाला कर्म-बन्धन। १८. भिक्षुओं की बारह प्रतिमाओं में (भिक्खूणं पडिमासु) विशेष विवरण के लिए देखिए-सूयगडो, २२; समवाओ, भिक्षु की प्रतिमाएं बारह हैं
समवाय १३। (१) एक मासिकी भिक्षु-प्रतिमा,
२०. चौदह जीव समुदायों....में (भूयगामेसु) (२) दो मासिकी भिक्षु-प्रतिमा,
प्राणियों के समूह १४ हैं। जैसे(३) तीन मासिकी भिक्षु-प्रतिमा,
१,२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय -अपर्याप्त -पर्याप्त (४) चार मासिकी भिक्षु-प्रतिमा,
३,४ बादर एकेन्द्रिय -अपर्याप्त --पर्याप्त (५) पांच मासिकी भिक्षु-प्रतिमा,
५,६ द्वीन्द्रिय
-अपर्याप्त -पर्याप्त (६) छह मासिकी भिक्षु-प्रतिमा,
७,८ त्रीन्द्रिय
-अपर्याप्त -पर्याप्त (७) सात मासिकी भिक्षु-प्रतिमा,
६,१० चतुरिन्द्रिय --अपर्याप्त -पर्याप्त (८) तत्पश्चात् प्रथम सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा, ११,१२ असंज्ञीपंचेन्द्रिय -अपर्याप्त -पर्याप्त (E) दूसरी सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा,
१३,१४ संज्ञीपंचेन्द्रिय --अपर्याप्त -पर्याप्त (१०) तीसरी सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा,
देखिए-समवाओ, समवाय १४ । (११) एक अहोरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा,
२१. पन्द्रह परमाधार्मिक देवों....में (परमाहम्मिएस) (१२) एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा।
सम्पूर्ण रूप में जो अधार्मिक हैं, उन्हें 'परमाधार्मिक' देखिए-समवाओ, समवाय १२।
कहा जाता है। इसी कारण देवों की एक जाति की संज्ञा भी १९. तेरह क्रियाओं....में (किरियासु)
यही हो गई है। परमाधार्मिक देव १५ हैं। कर्म-बन्ध की हेतुभूत चेष्टा को 'क्रिया' कहा जाता है। देखिए-१९४७ का टिप्पण। वे तेरह हैं
२२. गाथा-षोडशक (सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के (१) अर्थ-दण्ड-शरीर, स्वजन, धर्म आदि प्रयोजन से सोलह अध्ययनों)....में (गाहासोलसएहि) की जाने वाली हिंसा।
सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कन्ध में १६ (२) अनर्थ-दण्ड बिना प्रयोजन मौज-शौक के लिए अध्ययन हैं। सोलहवें अध्ययन का नाम 'गाथा' है। जिसका की जाने वाली हिंसा।
सोलहवां अध्ययन गाथा है उसे 'गाथा-षोडशक' कहा जाता (३) हिंसा-दण्ड-इसने मुझे मारा था, मारता है,
रता है। यह प्रथम श्रुतस्कन्ध का वाचक है। मारेगा-इस प्रणिधान से हिंसा करना।
देखिए-३१।१६ का टिप्पण; समवाओ, समवाय १६ । (४) अकस्मात्-दण्ड-एक के वध की प्रवृत्ति करते हुए
हुए २३. सतरह प्रकार के असंयम में (अस्संजमम्मि)
, अकस्मात् दूसरे की हिंसा कर डालना।
असंयम के १७ प्रकार ये हैंदृष्टि-विपर्यास-दण्ड-मति-भ्रम से होने वाली हिंसा
(१) पृथ्वीकाय-असंयम अथवा मित्र आदि को अमित्र बुद्धि से मारना।
(२) अप्काय-असंयम (६) मृषाबाद-प्रत्यय-स्व, पर या उभय के लिए मृषावाद
(३) तेजस्काय-असंयम से होने वाली हिंसा। (७) अदत्तादान-प्रत्यय-स्व, पर या उभय के लिए
(४) वायुकाय-असंयम
(५) वनस्पतिकाय-असंयम १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१४ : गाथाध्ययनं षोडशं येषु तानि गाथाषोडशकानि ।
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