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चरण-विधि
अध्ययन ३१ : श्लोक ६-१७
६. पिंडोग्गहपडिमासु
भयट्ठाणेसु सत्तसु। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
५३५ पिण्डावग्रहप्रतिमासु भयस्थानेषु सप्तषु। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु, आहार-ग्रहण की सात प्रतिमाओं में२
और सात भय-स्थानों में३ सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
१०. मयेसु बंभगुत्तीसु भिक्खुधम्ममि दसविहे। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
मदेषु ब्रह्मगुप्तिषु भिक्षुधर्मे दशविधे। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु आट मद-स्थानों में", ब्रह्मचर्य की नी गुप्तियों में और दस प्रकार के भिक्षु-धर्म में" सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
११. उवासगाणं पडिमासु भिक्खूणं पडिमासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
उपासकानां प्रतिमासु भिक्षूणां प्रतिमासु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु उपासकों की ग्यारह प्रतिमाओं तथा भिक्षुओं की बारह प्रतिमाओं में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
१२. किरियासु भूयगामेसु
परमाहम्मिएसु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
क्रियासु भूतग्रामेषु परमाधार्मिकेषु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु तेरह क्रियाओं', चौदह जीव-समुदाओं और पन्द्रह परमाधार्मिक देवों में सदा यत्न करत है, वह संसार में नहीं रहता।
१३. गाहासोलसएहिं
तहा अस्संजमम्मि य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
गाथाषोडशकेषु तथा असंयमे च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु गाथा-षोडशक (सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्य के सोलह अध्ययनों)२२ और सतरह प्रकार के असंयम में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता
१४. बंभम्मि नायज्झयणेसु
ठाणेसु यऽसमाहिए। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
ब्रह्मणि ज्ञाताध्ययनेषु स्थानेषु च असमाधेः। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य, उन्नीस ज्ञात-अध्ययनों और बीस असमाधि-स्थानों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
१५. एगवीसाए सबलेसु
बावीसाए परीसहे। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
एकविंशतौ शबलेषु द्वाविंशतौ परीषहेषु। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु इक्कीस प्रकार के शबल-दोषों२७ और बाईस परीषहों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
१६.तेवीसइ सूयगडे
रूवाहिएसु सुरेसु अ। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
त्रयोविंशती सूत्रकृतेषु रूपाधिकेषु सुरेषु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों और चौबीस प्रकार के देवों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
१७.पणवीसभावणाहिं
उद्देसेसु दसाइणं। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
पंचविंशतिभावनासु उद्देशेषु दशादीनाम्। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु पचीस भावनाओं और दशाश्रुत-स्कंध, व्यवहार और बृहत्कल्प के छब्बीस उद्देशों में२ सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
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