________________
एगतीसइमं अज्झयणं : इकतीसवां अध्ययन
चरणविही : चरण-विधि
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
अब मैं जीव को सुख देने वाली उस चरण-विधि का कथन करूंगा जिसका आचरण कर बहुत से जीव संसार-सागर को तर गए।
चरणविधिं प्रवक्ष्यामि जीवस्य तु सुखावहम्। यं चरित्वा बहवो जीवाः तीर्णाः संसारसागरम् ।। एकतो विरतिं कुर्यात् एकतश्च प्रवर्तनम्। असंयमान्निवृत्तिं च संयमे च प्रवर्तनम् ।। रागदोषौ च द्वौ पापौ पापकर्मप्रवर्तकौ। यो भिक्षुः रुणाद्धि नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
भिक्षु एक स्थान से निवृत्ति करे और एक स्थान में प्रवृत्ति करे। असंयम से निवृत्ति करे और संयम से प्रवृत्ति करे।
राग और द्वेष—ये दो पाप-कर्म के प्रवर्तक हैं। जो भिक्षु सदा इनका निरोध करता है, वह संसार में नहीं रहता।
जो भिक्षु तीन-तीन दण्डों', गौरवों और शल्यों का सदा त्याग करता है, वह संसर में नहीं रहता।
- मूल १. चरणविहिं पवक्खामि
जीवस्स उ सुहावहं। जं चरित्ता बहू जीवा
तिण्णा संसारसागरं।। २. एगओ विरई कुज्जा
एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च
संजमे य पवत्तण।। ३. रागदोस य दो पावे
पावकम्मपवत्तणे। जे भिक्खू रुंभई निच्चं
से न अच्छइ मंडले।। ४. दंडाणं गारवाणं च
सल्लाणं च तियं तियं। जे भिक्खू चयई निच्चं
से न अच्छइ मंडले।। ५. दिव्वे य जे उवसग्गे
तहा तेरिच्छमाणुसे। जे भिक्खू सहई निच्चं
से न अच्छइ मंडले।। ६. विगहाकसायसन्नाणं
झाणाणं च दुयं तहा। जे भिक्खू वज्जई निच्चं
से न अच्छइ मंडले।। ७. वएसु इंदियत्थेसु
समिईसु किरियासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं
से न अच्छइ मंडले।। ८. लेसासु छसु काएसु
छक्के आहारकारणे। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।।
दण्डानां गौरवाणां च शल्यानां च त्रिकं त्रिकम् । यो भिक्षुस्त्यजति नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु देव, तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी उपसर्गों को सदा सहता है, वह संसार में नहीं रहता।'
जो भिक्षु विकथाओं, कषायों, संज्ञाओं तथा आर्त्त और रौद्र-इन दो ध्यानों का सदा वर्जन करता है, वह संसार में नहीं रहता।
दिव्यांश्च यानुपसर्गान् तथा तैरश्चमानुषान्। यो भिक्षुः सहते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। विकथाकषायसंज्ञानां ध्यानयोश्च द्विकं तथा। यो भिक्षुर्वर्जयति नित्यं स. न आस्ते मण्डले।। व्रतेष्विन्द्रियार्थेषु समितिषु क्रियासु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। लेश्यासु षट्सु कायेषु षट्के आहारकारणे। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।।
जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में, इन्द्रिय-विषयों और क्रियाओं के परिहार में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
जो भिक्षु छह लेश्याओं", छह कायों और आहार के (विधि-निषेध के) छह कारणों में" सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org