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तपो-मार्ग-गति
दो प्रकार का होता है— द्रव्य- व्युत्सर्ग और भाव- व्युत्सर्ग। द्रव्य - व्युत्सर्ग के चार प्रकार
(क) शरीर - व्युत्सर्ग— शारीरिक चंचलता का विसर्जन । (ख) गण - व्युत्सर्ग— विशिष्ट साधना के लिए गण का विसर्जन ।
(ग) उपधि - व्युत्सर्ग— वस्त्र आदि उपकरणों का विसर्जन । (घ) भक्त - पान - व्युत्सर्ग-भोजन और जल का विसर्जन । भाव व्युत्सर्ग के तीन प्रकार
(क) कषाय- व्युत्सर्ग— क्रोध आदि का विसर्जन । (ख) संसार व्युत्सर्ग-परिभ्रमण का विसर्जन । (ग) कर्म-व्युत्सर्ग- कर्म-पुद्गलों का विसर्जन ।
प्रस्तुत श्लोक में केवल काय - व्युत्सर्ग की परिभाषा दी गई है। इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है। कायोत्सर्ग का अर्थ है 'काया का उत्सर्ग— त्याग' ।
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अध्ययन ३० : श्लोक ३६ टि० १६
उपसर्गों को सहन करे। जीव-जन्तु रहित एकांत स्थान में खड़ा रहे और कायोत्सर्ग मुक्ति के लिए करे।"
कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है आत्मा का काया से वियोजन । काया के साथ आत्मा का जो संयोग है, उसका मूल है प्रवृत्ति। जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात् आत्मा के सान्निध्य में रहना चाहता है, वह स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा “स्व” का व्युत्सर्ग करता है।
प्रश्न होता है कि आयु पूर्ण होने से पहले काया का उत्सर्ग कैसे हो सकता है ? यह सही है, जब तक आयु शेष रहती है, तब तक काया का उत्सर्ग त्याग नहीं किया जा सकता । किन्तु यह काया अशुचि है, अनित्य है, दोषपूर्ण है, असार है, दुःख-हेतु है, इसमें ममत्व रखना दुःख का मूल है— इस बोध से भेद-ज्ञान प्राप्त होता है। जिसे भेद ज्ञान प्राप्त होता है, वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है, मैं इसका नहीं हूं। मैं भिन्न हूं, शरीर भिन्न है। इस प्रकार का संकल्प करने से शरीर के प्रति आदर घट जाता है। इस स्थिति का नाम है 'कायोत्सर्ग' एक घर में रहने पर भी पति द्वारा अनादृत पत्नी ‘परित्यक्ता' कहलाती है । जिस वस्तु के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में अनादर-भाव होता है, वह उसके लिए परित्यक्त होती है। जब काया में ममत्व नहीं रहता, आदर भाव नहीं रहता तब काया परित्यक्त हो जाती है। कायोत्सर्ग - विधि
जो कायोत्सर्ग करना चाहे, वह काया से निस्पृह होकर खम्भे की भांति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे, प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाए। काया को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुका कर भी । परीषह और
१.
मूलाराधना, २।११६, विजयोदया, पृ० २७८ कायः शरीरं तस्य उत्सर्ग त्यागः... । तत्र शरीरनिःस्पृहः, स्थाणुरिवोवकायः प्रलंबितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्व सहमानः तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते देशे।
२. योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २५० : कायस्स शरीरस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण अन्यत्र उच्छ्वसितादिभ्यः क्रियांतराध्यासमधिकृत्य य उत्सर्ग त्यागो 'नमो अरहंताणं' इति वचनात् प्राक् स कायोत्सर्गः ।
३. (क) अमितगति श्रावकाचार ८१५७-६१ :
त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सृतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादि विभेदेन चतुर्विधा ।। आर्त्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिंत्यते । उपविष्टोपविष्टाख्या, कथ्यते सा तनूत्सृतिः ॥
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स्थान- काया की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण — काय गुप्ति । मौन-वाणी की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण - वाक्- गुप्ति । ध्यान - मन की प्रवृत्ति का एकाग्रीकरण - मनो-गुप्ति । कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृत्ति होती है, शेष प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है। कायोत्सर्ग के प्रकार
कायोत्सर्ग चार प्रकार का होता है
(१) उत्थित - उत्थित - जो खड़ा खड़ा कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्ल ध्यान में लीन होता है, वह काया से भी उन्नत होता है और ध्यान से भी उन्नत होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उत्थित - उत्थित' कहा जाता है ।
(२) उत्थित - उपविष्ट - जो खड़ा खड़ा कायोत्सर्ग करता है, किन्तु आर्त्त और रौद्र ध्यान से अवनत होता है, वह काया से खड़ा हुआ होता है और ध्यान से बैठा हुआ होता है, इसलिए उसके ध्यान को 'उत्थित - उपविष्ट' कहा जाता है।
(३) उपविष्ट - उत्थित — जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्ल ध्यान में लीन होता है, वह काया से बैठा हुआ होता है और ध्यान से खड़ा होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट-उत्थित' कहा जाता है।
(४) उपविष्ट-उपविष्ट – जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है। और आर्त्त या रौद्र ध्यान में लीन होता है, वह काया और ध्यान - दोनों से बैठा हुआ होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट - उपविष्ट' कहा जाता है।
इसमें प्रथम और तृतीय अंगीकरणीय हैं और शेष दो त्याज्य हैं।
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और
धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिंत्यते । उपविष्टोत्थितां संतस्तां वदंति तनुत्सृतिम् ।। आर्त्तरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । तामुत्थितोपविष्टाहां निगदंति महाधियः ।। धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । उत्थितोत्थितनामानं तं भाषते विपश्चितः ॥ (ख) आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४५६-१४६०
उसिउस्सिओ अ तह, उस्सिओ अ उस्सियनिसन्नओ चेव । निसनुस्सिओ निसन्नो, निस्सन्नगनिसन्नओ चेव । निवणुस्सिओ निवन्नो, निवन्ननिवन्नगो अनायव्वो ।। (ग) मूलाराधना, २1११६, विजयोदया, प० २७८ ।
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