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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३० : श्लोक ३६ टि० १६
सोते- इन तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है।' इस सम्पन्न होता है। प्रवचनसारोद्धार और विजयोदया के अनुसार भाषा में 'कायोत्सर्ग' और 'स्थान' दोनों एक बन जाते हैं। इनके ध्येय-परिमाण और काल-मान इस प्रकार हैंप्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं
प्रवचनसारोद्धार (१) चेष्टा-कायोत्सर्ग--अतिचार शुद्धि के लिए जो किया
चतुर्विंशस्तव श्लोक चरण उच्छ्वास जाता है।
(१) दैवसिक ४ २५ १०० १०० (२) अभिभव-कायोत्सर्ग-विशेष विशुद्धि या प्राप्त कष्ट (२) रात्रिक
५० को सहने के लिए जो किया जाता है।
(३) पाक्षिक १२ ७५ ३०० ३०० चेष्टा-कायोत्सर्ग का काल उच्छ्वास पर आधृत है। (४) चातर्मासिक २० १२५ ५०० ५०० विभिन्न प्रयोजनों से वह आठ, पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, (५) साम्वत्सरिक ४० २५२ १००८ १००८ पांच सौ और एक हजार आठ उच्छ्वास तक किया जाता है।
विजयोदया अभिभव-कायोत्सर्ग का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और
चतुर्विंशस्तव , श्लोक चरण उच्छ्वास उत्कृष्टतः एक वर्ष का है। बाहुबलि ने एक वर्ष का कायोत्सर्ग
(१) देवसिक ४ २५ १००
१०० किया था।
(२) रात्रिक
५० ५० अतिचार-शुद्धि के लिए किए जाने वाले कायोत्सर्ग के
(३) पाक्षिक १२ ७५ ३०० ३०० अनेक विकल्प होते हैं
(४) चातुर्मासिक १६ १०० ४०० ४०० (१) देवसिक-कायोत्सर्ग।
(५) साम्वत्सरिक २० १२५ ५०० ५०० (२) रात्रिक-कायोत्सर्ग।
अमितगति-श्रावकाचार के अनुसार देवसिक-कायोत्सर्ग (३) पाक्षिक-कायोत्सर्ग।
में १०८ तथा रात्रिक-कायोत्सर्ग में ५४ उच्छ्वास तक ध्यान (४) चातुर्मासिक-कायोत्सर्ग।
किया जाता है और अन्य कायोत्सर्ग में २७ उच्छ्वास तक। (५) साम्वत्सरिक-कायोत्सर्ग।
२७ उच्छ्वासों में नमस्कार-मंत्र की नौ आवृत्तियां की जाती हैं कायोत्सर्ग आवश्यक का पांचवां अंग है। ये उक्त कायोत्सर्ग
अर्थात् तीन उच्छ्वासों में एक नमस्कार-मंत्र पर ध्यान किया प्रतिक्रमण के साथ किए जाते हैं। इन (कायोत्सर्ग) से
जाता है-संभव है प्रथम दो-दो वाक्य एक-एक उच्छ्वास में चतुविशि-स्तव का ध्यान किया जाता है। उसके सात श्लोक
और पांचवां वाक्य एक उच्छ्वास में। अथवा 'ऐसो पंच और अट्ठाईस चरण हैं। एक उच्छ्वास में एक चरण का ध्यान
णमोक्कारो' सहित नौ पदों की तीन आवृत्तियां भी हो सकती किया जाता है। कायोत्सर्ग-काल में सातवें श्लोक के प्रथम
हैं--प्रत्येक पद की एक-एक उच्छ्वास में आवृत्ति होने से चरण 'चन्देसु निम्मलयरा' तक ध्यान किया जाता है। इस
सत्ताईस उच्छ्वास होते हैं। अमितगति ने एक दिन-रात के प्रकार एक 'चतुर्विंशस्व' का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में "
कायोत्सर्गों की सारी संख्या अट्ठाईस मानी है।' वह इस प्रकार १. योगशास्त्र, प्रकाश ३ पत्र २५०: स च कायोत्सर्ग उच्छ्रितनिषण्णशयितभेदेन चन्देसु निम्मलयरा इत्यन्तेन चिन्तितेन पूर्यन्ते, पायसमा ऊसासा इति वचनात् त्रेधा।
४. प्रवचनसारोद्धार, गाथा १८३-१८५ २. (क) आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४५२ :
चत्तारि दो द्वालस वीस चत्ता य हंति उज्जोया। सो उस्सग्गो दुविहो चिट्ठाए अभिभवे य नायव्यो।
देसिय राइय पक्खिय चउम्मासे य वरिसे य।। भिक्खायरियाइ पढमो उवसम्गभिजुंजणे विइओ।।
पणवीस अद्धतेरस सलोग पन्नत्तरी य बोद्धव्या। (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गाथा ५६५८ :
सयभेगं पणवीसं बे बावण्णा य वरिसंमि।। इह द्विधा कायोत्सर्गः-चेष्टायामभिभवे च।
साय सयं गोसद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खम्मि। (ग) योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २५० :
पंच य चउम्मासे वरिसे अट्ठोत्तरसहस्सा।। तत्र चेष्टा कायोत्सर्गोष्ट-पंचविंशति-सप्तविंशति-त्रिशती-पंचशती ५. मूलाराधना, २११६, विजयोदया, पृ० २७६। अष्टोत्तरसहस्त्रोच्छ्वासान् यावद् भवति। अभिभवकायोत्सर्गस्तु ६. अमितगति श्रावकाचार, ८६८-६६ : मुहूर्तादारभ्य संवत्सरं यावद् बाहुबलेरिव भवति।
अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे। मूलाराधना, २११६, विजयोदया, पृ० २७८ : अन्तर्मुहूर्तः सान्ध्ये प्राभातिके वार्द्धभन्यस्तत् सप्तविंशतिः ।। कायोत्सर्गस्य जघनयः कालः, वर्षमुत्कृष्टः। अतिचारनिवृत्तये सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः, संसारोन्मूलनक्षमे। कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवन्ति। रात्रिदिन-पक्ष-मासचतुष्टय- संति पंचनमस्कारे, नवधा चिन्तिते सति ।। संवत्सरादिकाल-गोचरातिचारभेदापेक्षया। सायाह्नउच्छ्वासशतकं, ७. वही, ८६६-६७ : प्रत्यूषसि पंचाशत्, पक्षे त्रिशतानि, चतुर्षु मासेषु चतुःशतानि, पंच अष्टविंशतिसंख्यानाः, कायोत्सर्गा मता जिनैः । शतानि संवत्सरे उच्छ्वासानां । प्रत्यूषसिप्राणिवधादिषु पंचस्वतिचारेषु अहोरात्रगताः सर्वे, षडावश्यककारिणाम् ।। अष्टशतोच्छ्वासमात्रः कालः कायोत्सर्गः।
स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैर्वन्दनायां षडीरिताः। ३. योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २१५ : पंचविंशत्युच्छ्वासाश्च चतुर्विशतिस्तवेन अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहती।।
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