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तपो-मार्ग-गति
१५. (श्लोक ३५)
ध्यान आभ्यन्तर तप का पांचवां प्रकार है । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार व्युत्सर्ग पांचवा और ध्यान छठा प्रकार है।' ध्यान से पूर्व व्युत्सर्ग किया जाता है, इस दृष्टि से यह क्रम उचित है और व्युत्सर्ग ध्यान के बिना भी किया जाता है। उसका स्वतंत्र महत्त्व भी है, इसलिए उसे ध्यान के बाद भी रखा जाता है ।
ध्यान की परिभाषा
चेतना की दो अवस्थाएं होती हैं—चल और स्थिर । चल चेतना को 'चित्त' कहा जाता है। उसके तीन प्रकार हैं(१) भावना —भाव्य विषय पर चित्त को बार-बार लगाना। (२) अनुप्रेक्षा-ध्यान से विरत होने पर भी उससे प्रभावित मानसिक चेष्टा ।
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(३) चिन्ता - सामान्य मानसिक चिन्ता |
स्थिर चेतना को 'ध्यान' कहा जाता है। जैसे अपरिस्पंदमान अग्नि- ज्वाला 'शिखा' कहलाती है, वैसे ही अपरिस्पन्दमान ज्ञान 'ध्यान' कहलाता है।
एकाग्र चिन्तन को भी ध्यान कहा जाता है। चित्त अनेक वस्तुओं या विषयों में प्रवृत्त होता रहता है, उसे अन्य वस्तुओं या विषयों से निवृत्त कर एक वस्तु या विषय में प्रवृत्त करना भी ध्यान है।
मन, वचन और काया की स्थिरता को भी ध्यान कहा जाता है। इसी व्युत्पत्ति के आधार पर ध्यान के तीन प्रकार होते हैं
(१) मानसिक - ध्यान मन की निश्चलता मनो-गुप्ति । (२) वाचिक - ध्यान —— मौन-वचन- गुप्ति
(३) कायिक- ध्यान — काया की स्थिरता — काय - गुप्ति ।' छद्मस्थ व्यक्ति के एकाग्र चिन्तनात्मक ध्यान होता है और प्रवृत्ति निरोधात्मक ध्यान केवली के होता है। छद्मस्थ के प्रवृत्ति निरोधात्मक ध्यान केवली जितना विशिष्ट भले ही न हो, किन्तु अंशतः होती ही है। ध्यान के प्रकार
एकाग्र चिन्तन को 'ध्यान' कहा जाता है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर उसके चार प्रकार हैं- (१) आर्त्त, (२) रौद्र, (३) धर्म्य और (४) शुक्ल
१. तत्त्वार्थ सूत्र, ६ २०१
२. वही, सूत्र, ६।२२।
३. ध्यानशतक, श्लोक २ :
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं ।
तं हुज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता ।।
४. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।२७ श्रुतसागरीयवृत्ति : अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। किं तत् ? अपरिस्पन्दमानाग्निज्वालावत् । यथा अपरिस्पन्दमानाग्निज्वाला शिखा इत्युच्यते तथा अपरिस्पन्देनावभासमानं ज्ञानमेव ध्यानमिति तात्पर्यार्थः ।
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(१) आर्त्तध्यान
अध्ययन ३० : श्लोक ३५ टि० १५
(क) कोई पुरुष अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस ( अमनोज्ञ विषय) के वियोग का चिन्तन करता है—यह पहला प्रकार है।
(ख) कोई पुरुष मनोज्ञ संयोग से संयुक्त है, वह उस ( मनोज्ञ विषय) के वियोग न होने का चिन्तन करता है—यह दूसरा प्रकार है।
(ग) कोई पुरुष आतंक (सद्योघाती रोग) के संयोग से संयुक्त होने पर उस (आतंक) के वियोग का चिन्तन करता है यह तीसरा प्रकार है।
(घ) कोई पुरुष प्रीतिकर काम भोग के संयोग से संयुक्त है, वह उस ( काम - भोग) के वियोग न होने का चिन्तन करता है—यह चौथा प्रकार है।
आर्त्तध्यान के चार लक्षण हैं- -आक्रन्द करना,
शोक
करना, आंसू बहाना, विलाप करना । (२) रौद्रध्यान
चेतना की क्रूरतामय एकाग्र परिणति को 'रौद्रध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं
(क) हिंसानुबन्धी— जिसमें हिंसा का अनुबन्ध - हिंसा में सतत प्रवर्तन हो ।
(ख) मृषानुबन्धी जिसमें मृषा का अनुबन्ध मृषा में सतत प्रवर्तन हो ।
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(ग) स्तेतानुबन्धी— जिसमें चोरी का अनुबन्ध — चोरी में सतत प्रवर्तन हो ।
(घ) संरक्षणानुबन्धी—– जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध - विषय के साधनों के संरक्षण में सतत प्रवर्तन हो ।
रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं
(क) अनुपरत दोष-प्रायः हिंसा आदि से उपरत न होना 1
(ख) बहु दोष - हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना ।
(ग) अज्ञान दोष-अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त
होना ।
(घ) आमरणान्त दोष — मरणान्त तक हिंसा आदि करने
५. ध्यानशतक, श्लोक ३ :
अंतोमुहुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु || लोकप्रकाश, ३०।४२१-४२२ :
यथा मानसिक ध्यानमेकाग्रं निश्चलं मनः ।
यथा च कायिकं ध्यानं, स्थिरः कायो निरेजनः ।। तथा यतनया भाषां भाषमाणस्य शोभनाम् । दृष्टां वर्जयतो ध्यानं वाचिकं कथितं जिनैः ।।
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