________________
पाप-श्रमणीय
२८३ अध्ययन १७ : श्लोक १६-२१ टि०१८-२५ १८. बार-बार (अभिक्खण)
गृहस्थों को आप्तभाव दिखा कर उनके कार्यों में व्याप्त होता अभीक्ष्ण का शब्दार्थ 'पुनः-पुनः' होता है। चूर्णि और है' किया है। वृत्ति में इसका भावार्थ प्रतिदिन किया गया है। पुनः पुनः २३. सामुदायिक-भिक्षा (सामुदाणिय) आहार करता है अर्थात् प्रतिदिन आहार करता है। इसका सामुदायिक-भिक्षा की व्याख्या का एक अंश दशवैकालिक मूल अर्थ 'बार-बार खाता है, सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता ५।१।२५ में तथा दूसरा अंश इस श्लोक में मिलता है। उसके रहता है'—होना चाहिए। इसका सम्बन्ध ‘एगभत्तं च भोयणं' अनुसार ऊंच नीच सभी कुलों से भिक्षा लेना सामुदायिक-भिक्षा (दशवैकालिक ६।२२) से होना चाहिए।
है। इसके अनुसार ज्ञात-अज्ञात सभी कुलों से भिक्षा लेना १९. आचार्य को छोड़ (आयरियपरिच्चाई)
सामुदायिक-भिक्षा है। आचार्य मुझे तपस्या में प्रेरित करते हैं तथा मेरे द्वारा
शान्त्याचार्य ने 'सामुदायिक' के दो अर्थ किए हैंआनीत आहार को बाल, ग्लान आदि साधुओं में वितरित कर
(१) अनेक घरों से लाई हुई भिक्षा। देते हैं-इन या इन जैसे दूसरे कारणों से जो आचार्य को छोड़
(२) अज्ञात उंछ-अपरिचित घरों से लाई हुई भिक्षा ।। देता है, वह...।
२४. पांच प्रकार के कुशील साधुओं (पंचकुसीले) २०. दूसरे धर्म-संप्रदायों में (परपासंड)
जैन आगमों में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ बतलाए गए वृतिकार ने 'परपासंड' का अर्थ सौगत आदि किया है। .
ही हैं-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक। विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि २३।१६
मूल तथा उत्तर गुणों में दोष लगाने वाला मुनि कुशील का टिप्पण।
निर्ग्रन्थ कहलाता है। इसके मुख्यतः दो प्रकार हैं-प्रतिसेवना २१. एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है (गाणंगणिए)
कुशील और कषाय कुशील। दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं
(१) ज्ञान कुशील (२) दर्शन कुशील (३) चारित्र कुशील (४) भगवान् महावीर की यह व्यवस्था थी कि जो निर्ग्रन्थ
लिंग कुशील (५) यथासूक्ष्मकुशील।" सूत्रकृतांग की चूर्णि में नौ जिस गण में दीक्षित हो, वह जीवन-पर्यन्त उसी में रहे। विशेष
प्रकार के कुशील बतलाए गए हैं--(१) पार्श्वस्थ (२) अवसन्न प्रयोजनवश (अध्ययन आदि के लिए) वह गुरु की आज्ञा से
(३) कुशील (४) संसक्त (५) यथाछंद (६) काथिक (७) जा सकता है। परन्तु दूसर गण म सक्रमण प्राश्निक (८) संप्रसारक (६) मामक। करने के पश्चात् छह मास तक वह पुनः परिवर्तन नहीं कर प्रस्तुत प्रसंग में दोनों प्रकार के कुशील-प्रतिसेवना सकता। छह मास के पश्चात् यदि वह परिवर्तन करना चाहे कशील और कषाय कुशील निग्रंथों का वर्णन है।३ तो कर सकता है। जो मुनि विशेष कारण के बिना छह मास २५. अमत की तरह पूजित (अमयं व पडए) के भीतर ही परिवर्तन करता है उसे 'गाणंगणिक' कहते हैं। चर्णि में अमत का वर्णन इस प्रकार है-अमत उत्त २२. दूसरों के घर में व्याप्त होता है-उनका कार्य करता वर्ण, गंध और रस से युक्त होता है। वह शरीर की क्रांति को है (परगेहंसि वावडे)
बढ़ाता है, शक्ति का संवर्धन करता है तथा अवयवों को पुष्ट चूर्णि में पर-गृह-व्यापार का अर्थ 'निमित्त आदि का करता है। वह सौभाग्य का जनक, सभी रोगों का नाश करने व्यापार' किया गया है।
वाला और अनेक गुणों से सम्पन्न होता है। वह कल्पवृक्ष के बृहद्वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'जो मुनि आहारार्थी होकर फल की भांति अमृतमय होता है।
(क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४६ : नित्यमाहारयति, यदि नाम ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४६-२४७ : परगृहेषु व्यापारं करोति, निमित्तादीनां
कश्चिद् चोदयति किमिति भवं आहारं नित्यमाहारयति न चतुर्थषष्ठादि च व्यापार करोति। कदाचिदपि करोति?
बृहवृत्ति, पत्र ४३६ : 'परगेहे' अन्यवेश्मनि 'वावरे' ति व्याप्रियते(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ : अभीक्ष्णं...प्रातरारभ्य सन्ध्यां यावत् पुनः पिण्डार्थी सन् गृहिणामाप्तभावं दर्शयन् स्वतस्तत्कृत्यानि कुरुते।
पुनः भुंक्ते, यदि वा...अभीक्ष्णं पुनः पुनः, दिने दिने इत्युक्तं भवति । ६. वही, पत्र ४३६ : समुदानानि-भिक्षास्तेषां समूहः सामुदानिकम्... २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ : 'आचार्यपरित्यागी' ते हि तपःकर्मणि बहुगृहसम्बन्धिनं भिक्षासमूहमज्ञातोञ्छमितियावत्।
विषीदन्तमुद्यमयन्ति, आनीतमपि चान्नादि बालग्लानादिभ्यो १०. ठाणं : ५१८४। दापयन्त्यतोऽतीवाहारलौल्यात्तत्परित्यजनशीलः।
११. ठाणं, : ५।१८७ : कुसीले पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा–णाणकुसीले, ३. वही, पत्र ४३५ : परान्-अन्यानू पाषण्डान-सौगतप्रभृतीन 'मृद्वी दसणकुसीले, चरितकुसीले, लिंगकुसीले, अहासुहुमकुसीले णामं पंचमे।
शय्या प्रातरुत्थाय पेया' इत्यादिकादभिप्रायतोऽत्यन्तमाहारप्रसक्तान्। १२. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० १०७।। ४. ठाणं, ७१।
१३. देखें ठाणं ५११८४ का टिप्पण। ५. दसाओ २३।
१४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४७ : अमृत कियद् वर्णगन्धरसोपेत ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५-४३६ : स्वेच्छाप्रवृत्ततया 'गाणंगणिए' त्ति गणाद् वर्णबलपुष्टिसौभाग्यजननं सर्वरोगनाशनं अनेकगुणसंपन्नं कल्पवृक्षफलवद
गणं षण्मासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणंगणिक इत्यागमिकी परिभाषा। मृतमभिधीयते।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org