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टिप्पण
अध्ययन २५ : यज्ञीय
१. (माहण.....विप्पो)
कर्म-काण्डी मीमांसकों का अभिमत है कि जो यज्ञ को 'माहण' का अर्थ है-ब्राह्मण। यह कुल के आधार पर
छोड़ देता है, वह श्रौत-धर्म से वंचित हो जाता है। भगवान् किया गया नामकरण है। विप्र वह होता है जो ब्राह्मण कुल में
महावीर के समय यज्ञों का प्रचलन अधिक था। केवल उत्तराध्ययन उत्पन्न होकर अध्ययन-अध्यापन तथा आचार-व्यवहार में
में ही यज्ञों का विरोध दो स्थलों में पाया जाता है। श्रीत-यज्ञों निरत रहता है।
के बन्द होने में जैन मुनियों के प्रयत्न बहुत महत्त्वपूर्ण रहे हैं। एक प्रशिद्ध श्लोक है
लोकमान्य तिलक के अनुसार-“उपनिषदों में प्रतिपादित जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः, संस्कारैर्द्विज उच्यते।
ज्ञान के कारण मोक्ष-दृष्टि से इन कर्मों की गौणता आ चुकी विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते।
थी (गीता २।४१-४६)। यही गौणता अहिंसा-धर्म का प्रचार विप्र की व्याख्या के लिए देखें-श्लोक ७ का टिप्पण।
होने पर आगे अधिकाधिक बढ़ती गई। भागवत-धर्म में स्पष्टतया २. यजनशील (जायाई)
प्रतिपादित किया गया है कि यज्ञ-याग वेद-विहित हैं, तो भी इसका संस्कृत रूप है—यायाजी। जो यजनशील होता उनके लिए पशु-वध नहीं करना चाहिए। धान्य से ही यज्ञ है, यज्ञ करने में अवश्य प्रवृत्त होता है, वह यायाजी कहलाता है। करना चाहिए। (देखिए-महाभारत शांतिपर्व ३३६ ।१० और ३. यमयज्ञ (जमजन्नंमि)
३३७)। इस कारण (तथा कुछ अंशों में आगे जैनियों के भी चूर्णिकार ने इसका अर्थ यमयज्ञ-यमतुल्य यज्ञ किया ऐसे ही प्रयत्न करने के कारण) श्रौत-यज्ञ मार्ग की आज-कल है, क्योंकि इसमें जीववध होता है। वृत्तिकार ने इसको यह दशा हो गई है कि काशी सरीखे बड़े-बड़े धर्म-क्षेत्रों में भी वैकल्पिक अर्थ मानकर इसका मूल अर्थ यमयज्ञ-व्रतयज्ञ श्रौताग्निहोत्र पालन करने वाले अग्नि-होत्री बहुत ही थोड़े किया है। गृहस्थावस्था की अपेक्षा से यमयज्ञ का चूर्णि सम्मत दीख पड़ते हैं और ज्योतिष्टोम आदि पशु-यज्ञों का होना तो अर्थ किया जा सकता है और मुनि अवस्था की अपेक्षा से दस-बीस वर्षों में कभी-कभी सुन पड़ता है।" वृत्तिकार का मूल अर्थ किया जा सकता है।
धर्मानन्द कौशाम्बी के अनुसार यज्ञ के उन्मूलन की वैदिक परम्परा में पांच यज्ञ माने गए हैं-भूतयज्ञ, दिशा में पहला प्रयत्न भगवान् पार्श्व ने किया : “इस प्रकार के मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ । यमयज्ञ की तुलना लम्बे-चौड़े यज्ञ लोगों को कितने अप्रिय होते जा रहे थे, इसके भूतयज्ञ से की जा सकती है।
और भी बहुत-से उदाहरण बौद्ध-साहित्य में मिलते हैं। इन ४. मार्गगामी (मग्गगामी)
यज्ञों से ऊब कर जो तापस जंगलों में चले जाते थे वे यदि इसके दो अर्थ प्राप्त हैं
कभी ग्रामों में आते भी थे तो लोगों को उपदेश देने के फेर में (१) सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र---
नहीं पड़ते थे। पहले पहल ऐसा प्रयत्न संभवतः पार्श्वनाथ ने इस त्रिपदी मार्ग का अनुगामी।'
किया। उन्होंने जनता को दिखा दिया कि यज्ञ-याग धर्म नहीं, (२) मुक्तिपथ की अनुगामी ।
चार याम ही सच्चा धर्म-मार्ग है। यज्ञ-याग से ऊबी हुई ५. यज्ञ (जन्न)
सामान्य जनता ने तुरन्त इस धर्म को अपनाया।" यज्ञ वैदिक परम्परा का आधार है। शतपथ ब्राह्मण में ६. सब के द्वारा अभिलषित (सव्वकामियं) यज्ञ को सबसे श्रेष्ठ-कर्म कहा है।'
वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं--सर्वकाम्य
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२।। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६८ : जायाई-जयनशीलः ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२ : जायाइ त्ति अवश्यं यायजीति यायाजी। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६८ : जयजन्नति (यम) तुल्यो यमयज्ञः
मारणात्मकः। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२ : यमा:-प्राणातिपातविरत्यादिरूपाः पञ्च त एव
यज्ञो-भावपूजात्मकत्वात् विवक्षितपूजां प्रति यमयज्ञस्तस्मिन्...
गार्हस्थ्यापेक्षया वैतद् व्याख्यायते...तथा यम इव प्राण्युपसंहारकारितया
यमः स चासी यज्ञश्च यमयज्ञः अर्थाद् द्रव्ययज्ञस्तस्मिन्। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६८ : सम्यग्दर्शनादिमार्गगामी। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२ : मार्गगामी–मुक्तिपथयायी। ७. शतपथ ब्राह्मण १७।४५ : यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म। ५. गीता रहस्य, पृ० ३०५। ६. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ०६१।
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