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खलुंकीय
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अध्ययन २७ : श्लोक ३-७ टि० ८-१४
में भी खलुक का अर्थ 'अविनीत' किया गया है।' खलुक का उसका संस्कृत रूप 'विघ्नन्' किया जा सकता है। जेकोबी ने अर्थ 'घोड़ा' भी होता है।
भी यही अर्थ दिया है। सरपेन्टियर ने लिखा है--संभव है यह शब्द 'खल' से ९. (एग डसइ पुच्छंमि) संबंधित रहा हो और प्रारम्भ में 'खल' शब्द के भी ये ही---- शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका सम्बन्ध क्रुद्ध वक्र, दुष्ट आदि अर्थ रहे हों। परन्तु इसकी प्रामाणिक व्युत्पत्ति गाड़ी-बाहक-सारथि से किया है। परन्तु प्रकरण की दृष्टि से अज्ञात ही है। अनुमानतः यह शब्द 'खलोक्ष' का निकटवर्ती यह संगत नहीं लगता। डॉ. हरमन जेकोबी ने इसका सम्बन्ध रहा है। जैसे-खल-विहग का दुष्ट पक्षी के अर्थ में प्रयोग होता दुष्ट बैल के साथ जोड़ा है। क्योंकि अगला सारा प्रकरण है, वैसे ही खल-उक्ष का दुष्ट बैल के अर्थ में प्रयोग हुआ हो। बैलों से सम्बन्धित है। अतः यह ठीक है।
'खलूक' शब्द के अनेक अर्थ नियुक्ति की गाथाओं १०.बींधता है (विंधइ) (४८६-४६४) में मिलते हैं--
इसका संस्कृत रूप है 'विध्यति'। सरपेन्टियर ने इस (१) जो बैल अपने जुए को तोड़कर उत्पथगामी हो जाते ,
शब्द के स्थान पर 'छिंदइ, भिंदइ' मानने का मत प्रगट किया हैं, उन्हें खलुक कहा जाता है---यह गाथा ४८६ का भावार्थ है।
है।" यह अनावश्यक लगता है। 'विंधइ' शब्द ही यहां ठीक है। (२) ४६० वीं गाथा में खलुंक का अर्थ वक्र, कुटिल, जो
क्योंकि जब बैल आपस में लड़ते हैं, तब वे एक दूसरे के सींगों नमाया नहीं जा सकता आदि किया गया है।
से बींधते हैं। (३) ४६१ वी गाथा में हाथी के अंकुश, करमंदी, गुल्म
११. उछलता है (उफिडई) की लकड़ी और तालवृन्त के पंखे आदि को खलुंक कहा गया है।
हेमचन्द्राचार्य के अनुसार 'भ्रंश' धातु को 'फिड' आदेश (४) ४६२ वीं गाथा में दंस, मशक, जोंक आदि को ।
होता है। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'मण्डूकवत् प्लवते' मंडूक खलुक कहा गया है। (५) ४६३ और ४६५ वी गाथाओं में गुरु के प्रत्यनीक,
की तरह फुदकना किया है।३ स्खलित होना और फुदकना
ये दोनों अर्थ भिन्न अपेक्षाओं से यहां संगत हो सकते हैं। शवल, असमाधिकर, पिशुन, दूसरों को संतप्त करने वाले अविश्वस्त शिष्यों को खलुक कहा गया है।
१२. तरुण गाय की ओर (बालगवी) उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि दुष्ट, वक्र .
शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) युवा गाय आदि के अर्थ में 'खलंक' शब्द का प्रयोग होता है। जव यर और (२) दुष्ट बैल।" प्रथम अर्थ संगत लगता है। मनुष्य या पशु के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है तव १३. छिनाल (छिन्नाल) इसका अर्थ होता है—दृष्ट मनुष्य या पश, अविनीत मनुष्य या 'छिन्नाले' का अर्थ है 'जार'। भारतवर्ष में घोडा-गाडीपशू और जब यह लता, गल्म, वृक्ष आदि के विशेषण के रूप वाहक इसका बहुधा प्रयोग करते हैं यह गाली वाचक शब्द है। में प्रयुक्त होता है, तब इसका अर्थ वक्र लता या वक्ष, ठंठ, इसका स्त्रीलिंग में भी प्रयोग होता है, यथा-छिनाली. छिनाल गांठों वाली लकड़ी या वृक्ष होता है।
स्त्री, छिन्ना आदि।" पुंश्चली को छिनाल कहते हैं। ८. आहत करता हुआ (विहम्माणो)
___ छिनालिया-पुत्र की संस्कृत छाया 'पुंश्चलिपुत्रक' दी हैशान्त्याचार्य ने इसका संस्कृत रूप 'विघ्नन्", नेमिचन्द ।
ऐसा सरपेन्टियर ने लिखा है।६ टीकाकार इसका अर्थ ने ‘विध्यमान' और सरपेन्टियर ने 'विधूयमान किया है।
'तथाविधदुष्टजातिः' करते हैं। उन्होंने टिप्पण करते हुए इस शब्द के स्थान पर 'विहम्ममाण' १४. रास को (सेल्लिं) शब्द को स्वीकार करने का मत प्रगट किया है। 'हन्' धातु का यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है "रज्जु' ।" सम्भव है 'हम्मइ' रूप बनता है। 'विहम्माण' को आर्षप्रयोग मानकर इस शब्द का संबन्ध अपभ्रंश शब्द 'सेल्ल' से हो. जिसका
१. ठाणं, ४४६८ वृत्ति, पत्र २३८ : खलुंको-गलिरविनीतः २. अभिधानप्पदीपिका, ३७० : घोटको, (तु) खलुंको (थ)। 3. The Uttaradhyayana Sutra,p 372 ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४८-५५०। ५. वही, पत्र ५५० : विहमाणो त्ति सूत्रत्वाद् विशेषेण 'घ्नन' ताडयन। ६. सुधबोधा, पत्र ३१६ : विहम्माणो त्ति सूत्रत्वाद् 'विध्यमानः' ताडयन्। ७. दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृ० ३७३। ८. दी सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, vol. XLV. उत्तराध्ययन, पृ० १५०। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५५१।
(ख) सुखबोधा, पत्र ३१७। 90. The Sacred Books of the East, YLV, Uttaradhyayana p. 150, Footnote 2.
११. दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ट ३७३। १२. हेमशब्दानुशासन, ८।४।१७७ : अंशेः फिड-फिट्ट, फुड-फुट चुक्क-चुल्ला। १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५१ : उफ्फिउइ ति मण्डूकवत् प्लवते। १४. वही, पत्र ५५१:
(क) 'बालगवी वए' त्ति 'बालगवीम्' अवृद्धा गाम्।
(ख) यदिवा डार्षत्वाद्वालगवीति व्यागवो-दुष्टवलीवर्दः । १५. देशीनाममाला, ३।२७। १६. The Uttaradhyayana Sutra,p.373. १७. बृहवृत्ति, पत्र ५५१ : "छिन्नालः' तथाविधदुष्टजातिः । १८. वही, पत्र ५५१ : 'सिल्लिं' ति रश्मि संयमनरज्जुमिति यावत्।
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