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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३० : श्लोक २६,२७ टि० ८,६
(२१) अदृष्टलाभिक (२६) अन्नग्लायक
(२) इक्षु-रस विकृति-गुड़, चीनी आदि। (२२) पृष्टलाभिक (२७) औपनिधिक
(३) फल-रस विकृति-अंगूर, आम आदि फलों का (२३) अपृष्टलाभिक. (२८) परिमितपिण्डपातक
रस। (२४) भिक्षालाभिक (२६) शुद्धएषणिक
(४) धान्य-रस विकृति--तैल, मांड आदि। (२५) अभिक्षालाभिक (३०) संख्यादत्तिक।
स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है। इसलिए मूलाराधना में पाटक, निवसन, भिक्षा-परिमाण और रस-परित्याग करने वाला शाक, व्यंजन, नमक आदि का भी दातृ-परिमाण भी वृत्ति-संक्षेप के प्रकार बतलाए गए हैं। वर्जन करता है। मूलाराधना के अनुसार दूध, दही, घृत, तैल ८. रस-विवर्जन तप (रसविवज्जणं)
और गुड़-इनमें से किसी एक का अथवा इन सबका परित्याग रस-विवर्जन या रस-परित्याग बाह्य-तप का चतर्थ प्रकार करना 'रस-परित्याग' है तथा 'अवगाहिम विकति' (मिठाई) है। मूलाराधना में वृत्ति-परिसंख्या चतुर्थ और रस-परित्याग पूड़े पत्र-शाक, दाल, नमक आदि का त्याग भी रस-परित्याग तृतीय प्रकार है। उत्तराध्ययन में रस-विवर्जन का अर्थ है- है। दूध, दही, घी आदि का त्याग और प्रणीत (स्निग्ध) पान-भोजन रस-परित्याग करने वाले मुनि के लिए निम्न प्रकार के का त्याग।
भोजन का विधान हैऔपपातिक में इसका विस्तार मिलता है। वहां इसके (१) अरस आहार-स्वाद-रहित भोजन । निम्नलिखित प्रकार उपलब्ध हैं----
(२) अन्यवेलाकृत-ठंडा भोजन। (१) निर्विकृति-विकृति का त्याग।
(३) शुद्धौदन-शाक आदि से रहित कोरा भात। (२) प्रणीत रस-परित्याग स्निग्ध व गरिष्ठ आहार का (४) रूखा भोजन-घृत-रहित भोजन। त्याग।
(५) आचामाम्ल-अम्ल-रस-सहित भोजन। (३) आचामाम्ल-अम्ल-रस मिश्रित अन्न का आहार। (६) आयामौदन-जिसमें थोड़ा जल और अधिक अन्न(४) आयाम-सिक्थ-भोजन-ओसामण से मिश्रित अन्न
भाग हो, ऐसा आहार अथवा ओसमाण-सहित भात। का आहार।
(७) विकटौदन-बहुत पका हुआ भात अथवा गर्म-जल (५) अरस आहार-हींग आदि से असंस्कृत आहार।
मिला हुआ भात। (६) विरस आहार-पुराने धान्य का आहार।
जो रस-परित्याग करता है, उसके तीन बातें फलित (७) अन्त्य आहार-वल्ल आदि तुच्छ धान्य का आहार। होती हैं-(१) संतोष की भावना, (२) ब्रह्मचर्य की आराधना (८) प्रान्त्य आहार-ठण्डा आहार।
और (३) वैराग्य । (६) रूक्ष आहार-रूखा आहार।
९. श्लोक (२७) इस तप का प्रयोजन है 'स्वाद-विजय'। इसीलिए 'काय-क्लेश' बाह्य-तप का पांचवां प्रकार है। प्रस्तुत रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं अध्ययन में काय-क्लेश का अर्थ 'वीरासन आदि कठोर खाता।
आसन' किया गया है। स्थानांग में काय-क्लेश के ७ प्रकार विकृतियां नौ हैं—(१) दूध, (२) दही, (३) नवनीत (४) घृत, निर्दिष्ट हैं-(१) स्थान-कायोत्सर्ग, (२) ऊकडू आसन, (५) तैल, (६) गुड़, (७) मधु, (८) मद्य और (E) मांस। इनमें (३) प्रतिमा आसन, (४) वीरासन, (५) निषद्या, (६) दण्डायत मधु, मद्य, मांस और नवनीत ये चार महाविकृतियां हैं। आसन और (७) लगण्ड-शयनासन।" इनकी सूचना
जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं- 'वीरासणाईया' इस वाक्यांश में है। स्वाद-लोलुप या विषय-लोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहा औपपातिक में काय-क्लेश के दस प्रकार बतलाए गएजाता है। पंडित आशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए (१) स्थान कायोत्सर्ग, (२) ऊकडू आसन, (३) प्रतिमा आसन,
(४) वीरासन, (५) निषद्या, (६) आतापना, (७) वस्त्र-त्याग, (१) गोरस विकृति–दूध, दही, घृत, मक्खन आदि। (८) उकण्डूयन-खाज न करना, (६) अनिष्ठीवन-थूकने का
हाविकृतियां
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वीरासणाईपातिक में काय
१. मूलाराधना, ३२१६। २. वही, ३।२०६। ३. ओवाइयं, सूत्र ३५ । ४. ठाणं, ६२३॥ ५. (क) ठाणं, ४१८५।
(ख) मूलाराधना, ३।२१३। ६. सागारधर्मामृत, ५॥३५, टीका।
७. सागारधर्मामृत, ५३५, टीका। ८. मूलाराधना, ३१२१५ । ६. वही, ३।२१६। १०. वही, ३।२१७, अमितगति :
संतोषो भावितः सम्यग, ब्रह्मचर्य प्रपालितम् ।
दर्शितं स्वस्य वैराग्य, कुर्वाणेन रसोज्झनम् ।। ११. ठाणं, ७४६
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