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तपो-मार्ग-गति
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अध्ययन ३० : श्लोक २७ टिंठ ६ त्याग और (१०) सर्व गात्र परिकर्म विभूषा का वर्जन—देह औपपातिक में भी तप के प्रकरण में 'ठाणाइय' है। परिकर्म की उपेक्षा ।'
उसका भी स्पष्ट अर्थ लब्ध नहीं है। मूलाराधना को देखने से आचार्य वसुनन्दि के अनुसार आचाम्ल, निर्विकृति, सहज ही यह प्राप्त होता है कि आदि शब्द स्थान के प्रकारों एकस्थान, उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना का संग्राहक है। उसके अनुसार स्थान या ऊर्ध्वस्थान के सात 'काय-क्लेश' है।
प्रकार हैंयह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो (क) साधारण-स्तम्भ या भित्ति का सहारा लेकर खड़े उपवास आदि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन
होना। से संबंधित-अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रस- (ख) सविचार–पूर्वावस्थित स्थान से दूसरे स्थान में परित्याग-चारों बाह्य-तपों से काय-क्लेश का लक्षण भिन्न
जाकर प्रहर, दिवस आदि तक खड़े रहना। होना चाहिए। इस दृष्टि से काय-क्लेश की व्याख्या उपवास-प्रधान (ग) सनिरुद्ध-स्व-स्थान में खड़े रहना। न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिए। शरीर के प्रति निर्ममत्व- (घ) व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना। भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिए आसन आदि (ङ) समपाद-पैरों को सटा कर खड़े रहना। साधना, उसको संवारने से उदासीन रहना—यह काय-क्लेश (च) एकपाद-एक पैर से खड़े रहना। का मूल-स्पर्शी अर्थ होना चाहिए।
(छ) गृद्धोड्डीन-आकाश में उड़ते समय गीध जैसे द्वितीय अध्ययन में जो परीषह बतलाए गए हैं, उनसे
अपने पंख फैलाता है, वैसे अपनी बाहों को फैला यह भिन्न है। काय-क्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है
कर खड़े रहना। और परीषह समागत कष्ट होता है।
(३) आसन योग श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत (क) पर्यंक—दोनों जंघाओ के अधोभाग को दोनों पैरों ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना,
पर टिका कर बैठना। नाना प्रकार की प्रतिमाएं और आसन करना 'काय-क्लेश' है।" (ख) निषद्या-विशेष प्रकार से बैठना। मूलाराधना में काय-क्लेश के पांच विभाग किए गए (ग) समपद-जंघा और कटि भाग को समान कर
बैठना। (१) गमन योग
(घ) गोदोहिका-गाय को दुहते समय जिस आसन में (क) अनुसूर्य गमन—कड़ी धूप में पूर्व से पश्चिम की
बैठते हैं, उस आसन में बैठना।। ओर जाना।
(ङ) उत्कुटिका-ऊकडू बैठना-एड़ी और पुत्तों को (ख) प्रतिसूर्य गमन-पश्चिम से पूर्व की ओर जाना।
ऊंचा रख कर बैठना। (ग) ऊर्ध्वसूर्य गमन—मध्याहून सूर्य में गमन करना। (च) मकरमुख–मगर के मुंह के समान पावों की आकृति (घ) तिर्यक्सूर्य गमन-सूर्य तिरछा हो तब गमन करना।
बना कर बैठना। (ङ) उभ्रमक गमन–अवस्थित ग्राम से भिक्षा के लिए (छ) हस्तिशुडि-हाथी की सूंड की भांति एक पैर को दूसरे गांव में जाना।
फैला कर बैठना। (च) प्रत्यागमन—दूसरे गांव जाकर पुनः अवस्थित गांव (ज) गो-निषद्या-दोनों जंघाओं को सिकोड़ कर गाय में लौट आना।'
की तरह बैठना। (२) स्थान योग
(झ) अर्धपर्यंक-एक जंघा के अधोभाग को एक पैर पर श्वेताम्बर-साहित्य में 'ठाणाइय' पाठ मिलता है और
टिका कर बैठना। कहीं-कहीं 'ठाणायत' की अपेक्षा 'ठाणाइय' अधिक अर्थ-सूचक (ञ) वीरासन-दोनों जंघाओं को अन्तर से फैला कर है। बृहत्कल्प भाष्य की वृत्ति में स्थान के साथ लगे आदि शब्द
बैठना। को निषीदन व शयन का ग्राहक बताया गया है।
(ट) दण्डायत-दण्ड की तरह पैरों को फैला कर बैठना।
१. ओवाइयं, सूत्र ३६। २. वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक ३५१ :
आयंबिल णिब्बियडी, एगट्ठाणं छट्ठमाइखवणेहि।
जं कीरइ तणुताव, कायकिलेसो मुणेयव्यो।। ३. तत्त्वार्थ, ८१६, श्रुतसागरीय वृत्ति : यदृच्छया समागतः परीषहः,
स्वयमेव कृतः काय-क्लेशः इति परीषहकायक्लेशयोर्विशेषः। ४. वही, ६१६, श्रुतसागरीय वृत्ति।
५. मूलाराधना, ३२२२ । ६. वही, ३२२३। ७. बृहत्कल्प भाष्य, गाथा ५६५३, वृत्ति : स्थानायत नाम ऊर्ध्वस्थानरूपमायत
स्थानं तद् यस्यामस्ति सा स्थानायतिका। केचित्तु 'ठाणाइयाए' इति पठन्ति, तत्रायमर्थः सर्वेषां निषीदनादीनां स्थानानां आदिभूतमूर्ध्वस्थानम्,
अतः स्थानानामादी गच्छतीति व्युत्पत्त्या स्थानादिगं तद् उच्यते। ८. मूलाराधना, ३।२२४-२५।
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