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तपो मार्ग-गति
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उन्नीसवीं गाथा में ये छह प्रकार निर्दिष्ट हैं और प्रस्तुत श्लोक में गोचराग के आठ प्रकारों का उल्लेख है। वे आयतं गत्वाप्रत्यागता से पृथक् मानने पर तथा शंबूकावर्त्ता के उक्त दोनों प्रकारों को पृथक्-पृथक् मानने पर बनते हैं।'
मूलाराधना में गोचराग्र के छह प्रकार हैं- (१) गत्वा प्रत्यागता, (२) ऋजु-वीथि, (३) गो मूत्रिका, (४) पेलविया, (५) शंकावत और (६) पतंगवीथि
जिस मार्ग से भिक्षा लेने जाए उसी मार्ग से लौटते समय भिक्षा मिले तो वह ले सकता है अन्यथा नहीं - यह गत्वा (गत) प्रत्यागत का अर्थ है।
प्रवचनसारोद्धार के अनुसार गली की एक पंक्ति में भिक्षा करता हुआ जाता है और लौटते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा करता है।
सरल मार्ग से जाते समय यदि भिक्षा मिले तो वह ले सकता है अन्यथा नहीं यह ऋजु-वीथि का अर्थ है । "
प्रवचनसारोद्धार के अनुसार ऋजु मार्ग से भिक्षाटन करते हुए जाता है, वापस आते समय भिक्षा नहीं करता।"
इन गोचराग की प्रतिमाओं से ऊनोदरी होती है, इसलिए इन्हें 'क्षेत्रतः अवमौदर्य' भी कहा गया है।"
सात एषणाएं
(१) संसृष्टा - खाद्य वस्तु से लिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना ।
(२) असंसृष्टा - भोजन-जात से अलिप्त हाथ या पात्र . से देने पर भिक्षा लेना ।
(६) लेपकृत-हाथ के चिपकने वाला आहार । (७) अलेपकृत — हाथ के न चिपकने वाला आहार । (८) पानक—द्राक्षा आदि से शोधिक पानक चाहे वह सिक्थ सहित हो या सिक्थ रहित । अमुक द्रव्य, अमुक क्षेत्र में, अमुक काल में व अमुक अवस्था में मिले तो लूं अन्यथा नहीं— इस प्रकार अनेक अभिग्रहों के द्वारा वृत्ति का संक्षेप किया जाता है।
औपपातिक में वृत्ति-संक्षेप के तीस प्रकार बतलाए हैं"(१) द्रव्याभिग्रहचरक
(११) उपनीतचरक (१२) अपनीतचरक
(२) क्षेत्राभिग्रहचरक
(३) उद्धृता - अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से (३) कालभिग्रहचरक दूसरे पात्र से निकला हुआ आहार लेना ।
(४) अल्पलेपा— अल्पलेप वाली अर्थात् चना चिउड़ा
(४) भावाभिग्रहचरक (५) उक्षिप्तचरक (६) निक्षिप्तचरक
आदि रूखी वस्तु लेना ।
(१३) उपनीत- अपनीतचरक (१४) अपनीत - उपनीतचरक (१५) संसृष्टचरक (१६) असंसृष्टचरक (१७) तज्जातसंसृष्टचरक (१८) अज्ञातचरक
(५) अवगृहीता खाने के लिए थाली में परोसा हुआ (७) उत्क्षिप्त - निक्षिप्तचरक आहार लेना ।
(८) निक्षिप्त- उत्क्षिप्तचरक (६) प्रगृहीता - परोसने के लिए कड़छी या चम्मच से (६) परिवेष्यमाणचरक निकला हुआ आहार लेना । (१०) संहियमाणचरक
(१६) मौनचरक (२०) दृष्टलाभिक
१.
२. मूलाराधना, ३।२१६ ।
३. वही, ३।२१८, विजयोदया गत्तापच्चागदं यया वीध्यागतः पूर्व तयैव प्रत्यागमनं कुर्वन् यदि लभते भिक्षां गृह्णाति नान्यथा ।
४. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ ।
५. मूलाराधना, ३।२१८ विजयोदया उज्जुवीहिं ऋज्च्या वीथ्या गतो यदि लभते गृह्णाति नेतरथा।
६. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ ।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५-६०६ : नन्यत्र गोचररूपत्वाद्भिक्षाचर्यात्वमेवासां
तत्कथमिह क्षेत्रावमौदार्यरूपतोक्ता ? उच्यते, अवमौदार्य ममास्त्वित्यभिसम्बन्धिना विधीयमानत्वादवमौदायव्यपदेशो ऽप्यदुष्ट एव दृश्यते हि निमित्तभेदादेकत्रापि देवदत्तादौ पितृपुत्राद्यनेकव्यपदेशः, एवं पूर्वत्र ग्रामादिविषयस्योत्तरत्र कालादिविषयस्य च नैयतस्याभिग्रहत्वेन भिक्षाचर्यात्वप्रसंगेन
प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४५ ।
अध्ययन ३० : श्लोक २५ टि० ७
(७) उज्झितधर्मा जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना।
मूलाराधना में वृत्ति-संक्षेप के प्रकार भिन्न रूप से प्राप्त होते हैं
(१) संसृष्ट–शाक, कुल्माष आदि धान्यों से संसृष्ट
आहार ।
(२) फलिहा - मध्य में ओदन और उसके चारों ओर शाक रखा हो, ऐसा आहार ।
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(३) परिखा— मध्य में अन्न और उसके चारों ओर व्यंजन रखा हो, वैसा आहार ।
(४) पुष्पोपहित व्यंजनों के मध्य में पुष्पों के समान अन्न की रचना किया हुआ आहार ।
(५) शुद्धगोपति-निष्पाव आदि धान्य से अमिश्रित शाक, व्यंजन आदि ।
इदमेवोत्तरं वाच्यम् ।
८. (क) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७३६ ७४३। (ख) स्थानांग, ७८, वृत्ति पत्र ३८६ ।
६. मूलाराधना, ३।२२०, विजयोदया ससिट्ठ—शाककुल्माषादिसंसृष्टमेव । फलिहा -- समंतादवस्थितशाकं मध्यावस्थितौदनं । परिखा—व्यंजनमध्यावस्थितान्नं । पुप्फोवहिदं च व्यंजनमध्ये पुष्पबलिरिव अवस्थितसिक्थं । सुद्धगोवहिद-शुद्धेन निष्पावादिभिमिश्रेणान्नेव उवहिदं संसृष्ट शाकव्यंजनादिकं । लेवडं हस्तलेपकारि। अलेवडं यच्च हस्ते न सज्जति । पाणगं पानं च कीदृक् ? णिसित्थगमसित्थं सिक्थरहितं पानं तत्सहितं
च।
१०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०७ ।
(ख) मूलाराधना, ३।२२१ ।
११. ओवाइयं, सूत्र ३४ ।
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