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तपो-मार्ग-गति
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अध्ययन ३० :श्लोक १४,१६ टि० ५,६ संलेखना का अर्थ है छीलना—कृश करना। शरीर को रत्नकरण्डक श्रावकाचार में उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा कृश करना-यह द्रव्य (बाह्य) संलेखना है। कषाय को कृश और असाध्य रोग उत्पन्न होने पर धर्म की आराधना के लिए करना-यह भाव (आन्तरिक) संलेखना है।'
शरीर त्यागने को 'संलेखना' कहा गया है। आचार्य शिवकोटि ने छह प्रकार के बाह्य-तप को ५. अवमौदर्य (ऊनोदरिका) (ओमोयरियं) बाह्य-संलेखना का साधन माना है। संलेखना का दूसरा क्रम यह बाह्य-तप का दूसरा प्रकार है। इसका अर्थ है 'जिस एक दिन उपवास और दूसरे दिन वृत्ति-परिसंख्यान तप है। व्यक्ति की जितनी आहार-मात्रा है, उससे कम खाना।' यहां बारह भिक्ष-प्रतिमाओं को भी संलेखना का साधन माना है। इसके पांच प्रकार किए गए हैं—(१) द्रव्य की दृष्टि से शरीर-संलेखना के इन अनेक विकल्पों में आचाम्ल तप उत्कृष्ट अवमौदर्य. (२) क्षेत्र की दष्टि से अवमौदर्य, (३) काल की साधन है। संलेखना करने वाला, तेला, चोला, पंचोला आदि
दृष्टि से अवमौदर्य, (४) भाव की दृष्टि से अवमौदर्य और तप करके पारण में मित और हल्का आहार (बहुधा आचाम्ल (५) पर्यव की दृष्टि से अवमौदर्य। अर्थात कॉजी का आहार-'आयंबिलं-कांजिकाहारं' मूलाराध औपपातिक में इसका विभाजन भिन्न प्रकार से हैना ३।२५१, मूलाराधना दर्पण) करता है।
(१) द्रव्यतः अवमौदर्य और (२) भावतः अवमीदर्य। द्रव्यतः भक्त-परिज्ञा का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का है। उसका अवमीदर्य के दो प्रकार हैं-(१) उपकरण अवमौदर्य और क्रम इस प्रकार है
(२) भक्त-पान अवमौदर्य। भक्त-पान अवमौदर्य के अनेक प्रकार (१) प्रथम चार वर्षों में विचित्र अर्थात् अनियत काय-क्लेशों हैं-(१) आठ ग्रास खाने वाला अल्पाहारी होता है, (२) बारह के द्वारा शरीर कृश किया जाता है।
ग्रास खाने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य होता है, (३) सोलह ग्रास (२) दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर खाने वाला अर्द्ध अवमौदर्य होता है, (४) चौबीस ग्रास खाने शरीर को सुखाया जाता है।
वाला पौन अवमौदर्य होता है और (५) इकतीस ग्रास खाने (३) नौवें और दसवें वर्ष में आचाम्ल और विकृति-वर्जन वाला किंचित् अवमौदर्य होता है।" किया जाता है।
यह कल्पना भोजन की पूर्ण मात्रा के आधार पर की गई (४) ग्यारहवे वर्ष में केवल आचाम्ल किया जाता है। है। पुरुष के आहार की पूर्ण मात्रा बत्तीस ग्रास और स्त्री के
(५) बारहवें वर्ष की प्रथम छमाही में अविकृष्ट तप- पूर्ण आहार की मात्रा अट्ठाईस ग्रास है।१२ ग्रास का परिमाण उपवास, बेला आदि किया जाता है।
मुर्गी के अण्डे अथवा हजार चावल जितना" बतलाया गया (६) बारहवें वर्ष की दूसरी छमाही में विकृष्ट तप- है। इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भूख हो, उससे एक कवल तेला, चोला आदि किया जाता है।
कम खाना भी अवमौदर्य है। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह दोनों परम्पराओं में संलेखना के विषय में थोड़ा क्रम-भेद आदि को कम करना भावतः अवमीदर्य है।* निद्रा-विजय, है, किन्तु यह विचारणीय नहीं है। आचार्य शिवकोटि के शब्दों समाधि, स्वाध्याय, परम-संयम और इन्द्रिय-विजय-ये अवमौदर्य में संलेखना के लिए वही तप या उसका वही क्रम अंगीकार के फल हैं। करना चाहिए जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और शरीर-धातु के ६. (ग्रामे.....पल्ली ) अनुकूल हो। संलेखना का जो क्रम बतलाया गया है, वही क्रम
हा क्रम ग्राम--जो गुणों को ग्रसित करे अथवा जहां १८ प्रकार है ऐसा नियम नहीं है। जिस प्रकार शरीर का क्रमशः संलेखन
लखन
के कर लगते हों के कर लगते हों, वह 'ग्राम' कहलाता है। ग्राम का अर्थ
वह । (तनूकरण) हो, वही प्रकार अंगीकरणीय है।
'समूह' है। जहां-जहां जन-समूह रहता है, उसका नाम ग्राम
१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : संलेखन-द्रव्यतः शरीरस्य भावतः कषायाणां
कृशताऽऽपादनं संलेखा, संलेखनेति। (ख) मूलाराधना, ३१२०६। २. (क) मूलाराधना, ३२०८ |
(ख) मूलाराधना दर्पण, ३१२०८, पृ० ४३५ ।
(ग) मूलाराधना, ३१२४६। ३. वही, ३१२४७। ४. वही, ३।२४। ५. वही, ३२५०-२५१। ६. वही, ३२५३। ७. (क) मूलाराधना, ३२५३। (ख) मूलाराधना दर्पण, ३१२५४, पृ०४७५ : निर्विकृतिः रसव्यंजनादिव-
र्जितमव्यतिकीर्णमोदनादि भोजनम् ।
८. मूलाराधना, ३२५४ । ६. वही, ३२५५। १०. रत्नकरण्डक श्रावकाचारः १२२ :
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। ___ धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।। ११. ओवाइयं, सूत्र ३३। १२. मूलाराधना, ३।२११।। १३. ओवाइयं, सूत्र ३३। १४. मूलाराधना दर्पण, पृ० ४२७। १५. ओवाइयं, सूत्र ३३। १६. मूलाराधना, ३।२११, अमितगति, पृ. ४२८ । १७. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ : ग्रसति गुणान् गम्यो वाऽष्टादशानां कराणाभिति
ग्रामः।
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