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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : सूत्र २१-२५
२१. पडिपुच्छणयाए णं भंते ! जीवे प्रतिप्रच्छनेन भदन्त ! जीवः भंते! प्रतिप्रश्न करने से जीव क्या प्राप्त करता किं जणयइ?
किं जनयति? पडिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थ- प्रतिप्रच्छनेन सूत्रार्थत- प्रतिप्रश्न करने से वह सूत्र, अर्थ और उन तदुभयाइं विसोहेइ। कंखा- दुभयानि विशोधयति। काङ्क्षा- दोनों से सम्बन्धित सन्देहों का निवर्तन करता है मोहणिज्जं कम्मं वोच्छिदइ। मोहनीयं कर्म व्युच्छिनत्ति। और कांक्षा-मोहनीय कर्म का विनाश करता है।
२२.परियट्टणाए णं भंते ! जीवे किं
जणयइ? परियट्टणाए णं वंजणाइंजणयइ वंजणलद्धिं च उप्पाएइ।।
परिवर्तनया भदन्त ! जीवः भंते ! परावर्त्तना (पठित-पाठ के पुनरावर्तन) से किं जनयति?
जीव क्या प्राप्त करता है? परिवर्तनया व्यंजनानि परावर्त्तना से वह अक्षरों को उत्पन्न करता जनयति व्यंजनलब्धिं चोत्पादयति।। है—स्मृत को परिपक्व और विस्मृत को याद करता
है तथा व्यंजन-लब्धि (वर्ण विद्या) को प्राप्त होता है।
२३. अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं अनुप्रेक्षया भदन्त ! जीवः भंते ! अनुप्रेक्षा (अर्थ-चिन्तन) से जीव क्या प्राप्त जणयइ ? किं जनयति?
करता है? अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ अनुप्रेक्षया आयुष्कवर्जाः अनुप्रेक्षा से३२ वह आयुष्-कर्म को छोड़ कर सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबंधण- सप्तकर्मप्रकृती: दृढबन्धनवद्धाः शेष सात कर्मों की गाढ-बन्धन से बन्धी हुई प्रकृतियों बद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ शिथिलबन्धनबद्धाः प्रकरोति, को शिथिल-बन्धन वाली कर देता है, उनकी पकरेइ, दीहकालट्टिइयाओ दीर्घकालस्थितिका हस्वकालस्थितिकाः दीर्घ-कालीन स्थिति को अल्पकालीन कर देता है, हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, प्रकरोति, तीवानुभावाः मन्दानुभावाः उनके तीव्र अनुभव को मन्द कर देता है। उनके तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ प्रकरोति । बहुप्रदेशागा अल्पप्रदेशाग्राः बहु-प्रदेशाग्र में बदल देता है। आयुष्-कर्म का बन्ध पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्प- प्रकरोति। आयुष्कञ्च कर्म स्याद् कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता। पएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च बध्नाति स्यान्नो बध्नाति। असा- असात-वेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो तवेदनीयञ्च कर्म नो भूयोभूय और अनादि-अनन्त लम्बे-मार्ग वाली तथा बंधइ। असायावेयणिज्जं च णं उपचिनोति। अनादिकं च अनवदयं चतुर्गति-रूप चार अन्तों वाली" संसार अटवी को कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचि- दीर्घाध्वं चतुरन्तं संसारकान्तारं तुरन्त ही पार कर जाता है। णाइ। अणाइयं च णं अणवदग्गं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजति।। दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ।।
२४. धम्मकहाए णं भंते ! जीवे किं धर्मकथया भदन्त ! जीवः भंते ! धर्म-कथा से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ?
किं जनयति? धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ।
धर्मकथया निर्जरां जनयति! धर्म-कथा से वह कर्मों को क्षीण करता है
धर्मकथया प्रवचनं प्रभावयति। और प्रवचन' की प्रभावना करता है। प्रवचन की पवयणपभावे णं जीवे आगमि- प्रवचनप्रभावका जावः आगमिष्यतः प्रभावना करने व
प्रवचनप्रभावको जीवः आगमिष्यतः प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में कल्याणकारी सस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ। भद्रतया कर्म निबध्नाति।। फल देने वाले कमों का अर्जन करता है?
२५.सुयस्स आराहणयाए णं भंते !
जीवे किं जणयइ? सुयस्स आराहणयाएणं अण्णाणं खवेइ न य संकिलिस्सइ।।
श्रुतस्य आराधनया भदन्त ! भंते ! श्रुत की आराधना से जीव क्या प्राप्त करता जीवः किं जनयति?
श्रुतस्य आराधनया अज्ञानं श्रुत की आराधना से अज्ञान का क्षय करता क्षपयति, न च संक्लिश्यते।। है और राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले मानसिक
संक्लेशों से बच जाता है।६
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