________________
तपो मार्ग-गति
५१५
भक्त - प्रत्याख्यान में शारीरिक परिचर्या स्वयं की जाती है, दूसरों से कराई भी जाती है। इंगिनी में वह स्वयं की जाती है, दूसरों से नहीं कराई जाती। प्रायोपगमन में वह न स्वयं की जाती है और न दूसरों से कराई जाती है।"
प्रायोपगमन अनशन करने वाला शरीर को इतना कृश कर लेता है कि उसके मल-मूत्र होते ही नहीं। वह अनशन करते समय जहां अपना शरीर टिका देता है, वहीं स्थिर-भाव से टिकाए रहता है। इस प्रकार वह निष्प्रतिकर्म होता है। वह अचल होता है, इसलिए अनिर्हार होता है। दूसरा कोई व्यक्ति उसे उठा कर किसी दूसरे स्थान में डाल देता है तो पर-कृत चालन की अपेक्षा वह निर्हार भी हो जाता है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्परा में अनशन के तीनों प्रकार और अनेक नाम समान हैं। 'पाओअगमण' का संस्कृत रूप श्वेताम्बर आचार्यों ने 'पादपोपगमन" किया है, वहां दिगम्बर आचार्यों ने 'प्रायोपगमन' ।' अर्थ की दृष्टि से 'पादपोपगमन' अधिक उपयुक्त है किन्तु संस्कृत छाया की दृष्टि से 'प्रायोपगमन' होना चाहिए। महाभारत में अनशनकर्त्ता के अर्थ में 'प्रायोपविष्ट' शब्द का प्रयोग मिलता है। काश्मीर में अनशन के प्रबन्ध के लिए एक पदाधिकारी नियुक्त था, जो 'प्रायोपवेश' कहलाता था।
9. मूलाराधना, २०६४ विजयोदया— स्वपरसंपाद्यप्रतीकारापेक्षः भक्तप्रत्याख्यानविधिः, परनिरपेक्षमात्मसंपाद्यप्रतीकारमिंगिणीमरणं, सर्वप्रतीकाररहितं प्रायोपगमनमित्यमीषाभेदः ।
२. वही, ८ २०६५
सो सल्लेहिददेहो, जम्हा पाओवगमणमुवजादि । उच्चारादिविकिंचण, मवि णत्थि पवोगदो तम्हा ।।
३. वही, ८ २०६८-६६-७० :
वोसट्टचत्तदेहो, दु णिक्खिवेज्जो जहिं जधा अंगं । जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंगं ण चालेज्ज ||
एवं णिप्पडियम्मं, भणति पाओवगमणमरहंता । णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुवसग्गे ।।
उवसग्गेण य साहारेदो, सो अण्णत्थ कुषदि जं कालं । तम्हा वृत्तं णीहार, मदो अण्ण अणीहारं ।।
४. औपपातिक वृनि, पृ० ७१ पादपस्येवोपगमनम् - अस्पन्दतया ऽवस्थानं
पादपोपगमनम्।
५. मूलाराधना, ८ २०६३
पाओवगमणमरणस्स ।
विजयोदयाप्रायोपगमनमरणम् ।
६. महाभारत शान्तिपर्व, २७।२४
प्रायोपविष्टं जानीध्वमथ मां गुरुधातिनम् ।
७. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, प० १०४।
८. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०२ : 'कायचेष्टाम्' उद्वर्त्तनपरिवर्त्तनादिककायप्रवीचार
'प्रती' ति आश्रित्य 'भवेत्' स्यात्, तत्र सविचारं भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमारणं च ।
Jain Education International
अध्ययन ३० : श्लोक १२-१३ टि० ४
श्वेताम्बर
दिगम्बर
१. सविचार गमनागमन सहित
अर्ह लिंग आदि
विकल्प सहित ।
अर्ह लिंग आदि विकल्प-रहित ।"
२. अविचार गमनागमन सहित'
१०
३. निर्धारि - उपाश्रय के एक देश में, जिससे मृत्यु के पश्चात् शरीर का निर्हरण किया जाए बाहर ले जाया जाए। २ ४. अनिहारि गिरि-गुफा आदि में, स्व-गण का त्याग जिससे मृत्यु के पश्चात् निर्हरण कर पर गण में न करना आवश्यक न हो।" जा सके, वह । ३ प्रायोपगमन के वर्णन में आचार्य शिवकोटि ने अनिर्हार और निर्हार का अर्थ 'अचल' और 'चल' भी किया है।" मूलाराधना के भक्त-प्रत्याख्यान के निरुद्धतर और परमनिरुद्ध की तुलना औपपातिक के पादपोपगमन और भक्त - प्रत्याख्यान के एक प्रकार - व्याघात- सहित से होती है । औपपातिक के अनुसार पादपोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान दोनों अनशनों के दो-दो प्रकार होते हैं—व्याघात- सहित और व्याघात रहित । व्याघात सहित का अर्थ है— सिंह, दावानल आदि का व्याघात उत्पन्न होने पर किया जाने वाला अनशन ।
स्व-गण का त्याग कर पर गण में जा सके, वह ।
इनसे यह फलित होता है कि अनशन व्याघात उत्पन्न होने पर भी किया जाता है और व्याघात न होने पर भी किया
६. मूलाराधना, २६५, विजयोदया वृत्ति विचरणं नानागमनं विचारः । विचारेण वर्तते इति सविचारं एतदुक्तं भवति । वक्ष्यमाणार्हलिंगादिविकल्पेन सहितं भक्तप्रत्याख्यानं इति ।
१०. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०२ अविचारं तु पादपोपगमनं तत्र हि सव्याघाताव्याघातभेदतो द्विभेदेऽपि पादपवन्निश्चेष्टतयैव स्थीयते ।
११. (क) मूलाराधना, २।६५ विजयोदया वृत्ति अविचारं वक्ष्यमाणादिनानाप्रकाररहितम् ।
(ख) मूलाराधना दर्पण, ७।२०१५ : अवीचारं अनियतविहारादिविचारणाविरहात् ।
१२. स्थानांग २।४१५ वृत्ति: यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात् --- निस्सारणान्निहरिमम् ।
१३. मूलाराधना दर्पण, ७।२०१५ अणिहारिमं सविचारभक्तप्रत्याख्यानोक्तस्वगणपरित्यागाभावात् ।
अर्थसविचार भक्त के प्रत्याख्यान में स्व- गण का परित्याग
कर पर गण में जाने की विधि बतलाई है, वह इसमें नहीं है इसलिए इसको 'अणिहारिम' कहते हैं।
१४. मूलाराधना दर्पण, २।४१५, वृत्ति यत्पुनर्गिरिकन्दरादौ तदर्निहरणादनिर्धारिमम् ।
१५. मूलाराधना ८ २०६६
For Private & Personal Use Only
एवं णिप्पडियम्मं भणति पाओवगमणमरहंता ।
णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुवसग्गे ।।
विजयोदयातत्प्रायोपगमनमनतिहारमचलं स्याच्चलमपि उपसर्गे परकृतचलमनपेक्ष्य ।
१६. औपपातिक, सूत्र ३२ वृत्ति, पृ० ७१ व्याघातवत्-सिंहदावानलाद्यभिभूतो यत् प्रतिपद्यते ।
www.jainelibrary.org