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अध्ययन २६ : सूत्र ३६-४१ टि० ४६-५२ (१) जीवन पर्यन्त अनशन और (२) निश्चित अवधि- पर्यन्त अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श हो जाती है-अरूपी सत्ता
अनशन ।
में अवस्थित हो जाती है। अगुरु-लघु, स्थिर - अवगाहना और अव्याबाध सुख ( सहज सुख) — ये गुण प्रकट हो जाते हैं । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शुद्धि और अनन्त वीर्यये पहले ही प्राप्त हो चुके होते हैं। प्रवृत्ति और शरीर के बन्धन से बन्धी हुई आत्मा इतस्ततः भ्रमण करती है। किंतु उन बन्धनों से मुक्त होने पर वह ऊर्ध्व-लोक के अन्तिम छोर पर पहुंच कर अवस्थित हो जाती है, फिर उसके पास गति का माध्यम नहीं होता ।
सम्यक्त्व-पराक्रम
शांत्याचार्य ने आहार- प्रत्याख्यान का अर्थ 'अनेषणीय ( अयोग्य) भक्त - पान का परित्याग' किया है।' किन्तु इसके परिणामों को देखते हुए इसका अर्थ और अधिक व्यापक हो सकता है।
आहार- प्रत्याख्यान के दो परिणाम हैं- (१) जीवन की आकाङ्क्षा का विच्छेद और (२) आहार के बिना संक्लेश प्राप्त न होना - बाधा का अनुभव न करना। ये परिणाम आहार-त्याग की साधना से ही प्राप्य हैं। एषणीय आहार नहीं मिलने पर उसका जो प्रत्याख्यान किया जाता है, उसमें भी आत्मा का स्वतंत्र भाव है। किन्तु वह योग्य आहार की अप्राप्ति से होने वाला तप है। ममत्व-हानि तथा शरीर और आत्मा के भेद -ज्ञान को विकसित करने के लिए जो आहार प्रत्याख्यान किया जाता है, वह योग्य आहार की प्राप्ति की स्थिति में किया जाने वाला तप है। उससे जीवन के प्रति निर्ममत्व और आहार के अभाव में संक्लेश रहित मनोभाव — ये दोनों सहज ही सध जाते हैं। इसलिए आहार - प्रत्याख्यान का मुख्य अर्थ 'साधना के विशेष दृष्टिकोण से तप करना' होना चाहिए। ४९. कषाय-प्रत्याख्यान से (कसायपच्चक्खाणेणं)
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आत्मा विजातीय रंग में रंगी हुई होती है। उसी का नाम 'कषाय' है । कषाय के प्रत्याख्यान का अर्थ है 'आत्मा से विजातीय रंग का धुल जाना।' आत्मा की कषाय-मुक्त स्थिति का नाम है 'वीतरागता'। कषाय और विषमता — इन्हें पर्यायवाची कहा जा सकता है । कषाय से विषमता उत्पन्न होती है, इसकी अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि कषाय और विषमता दोनों साथ-साथ उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार वीतरागता और समता भी एक साथ उत्पन्न होती हैं। सुख-दुःख आदि बाहरी स्थितियों में आत्मा की जो विषम अनुभूति होती है, उसका हेतु कषाय है। उसके दूर होते ही आत्मा में बाह्य-स्थिति विषमता उत्पन्न नहीं करती। इस स्थिति को 'वीतरागता' या 'आत्मा की बाह्य वातावरण से मुक्ति' कहा जा सकता है। ५०. (सूत्र ३८-३९ )
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इन दोनों सूत्रों में 'अयोगि दशा' और 'मुक्त-दशा' का निरूपण है। पहले प्रवृत्ति-मुक्ति (योग प्रत्याख्यान) होती है फिर शरीर मुक्ति ( शरीर प्रत्याख्यान) यहां 'योग' शब्द समावि का वाचक नहीं किन्तु मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का वाचक है। मुक्त होने के क्रम में पहले अयोगि दशा प्राप्त होती है। उससे नये कर्मों का बन्ध समाप्त हो जाता है-पूर्ण संवर हो जाता है और पूर्व संचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। कर्म के अभाव में आत्मा शरीर-मुक्त हो जाती है और शरीर-मुक्त आत्मा में अतिशय गुणों का विकास हो जाता है। वह सर्वथा १. बृहद्वृत्ति पत्र ५८८ ।
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प्रस्तुत सूत्र (२९) में सिखाइसयगुणत्तणं' पाठ है। समवायांग (३१1१ ) में 'सिखाइगुण' ऐसा पाठ है और उत्तराध्ययन ( ३१२०) में 'सिद्धाइगुणजोगेसु' – ऐसा उल्लेख है। आदिगुण का अर्थ मूल गुण और अतिशयगुण का अर्थ विशिष्ट गुण है। तात्पर्यार्थ में दोनों निकट आ जाते हैं। ५१. सहाय प्रत्याख्यान से (सहायपच्चक्खाणेण) जो साधु 'गण' या 'संघ' में दीक्षित होते हैं, उनके लिए दूसरे साधुओं से सहयोग लेना वर्जित नहीं है। सहाय प्रत्याख्यान का जो विधान है, वह एक विशेष साधना है । उसे स्वीकार करने के पीछे दो प्रकार का मानस हो सकता है। एक वह जो अपने पराक्रम से ही अपनी जीवन चर्या का निर्वाह करना चाहता है, दूसरे सहायक का सहारा लेना नहीं चाहतापरावलम्बी होना नहीं चाहता। दूसरा वह जो सामुदायिक जीवन के झंझावातों में अपनी समाधि को सुरक्षित नहीं पाता । सामुदायिक जीवन में कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुमथोड़ा-सा अपराध होने पर ' तूने पहले भी ऐसा किया था, तू सदा ऐसा ही करता है', इस प्रकार बार-बार टोकना - ये हो जाते हैं। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए, फिर भी प्रमादवश वह ऐसा कर लेता है। इस स्थिति में मानसिक असमाधि उत्पन्न हो जाती है। जो मुनि संघ में रहते हुए भी स्वावलम्बी हो जाता है, किसी भी कार्य के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं होता, वह समुदाय में रहते हुए भी अकेले का जीवन जीता है। उसे कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुम आदि से सहज ही मुक्ति मिल जाती है। इससे संयम और संवर बढ़ता जाता है। मानसिक समाधि अभंग हो जाती है। सामुदायिक जीवन में रहते हुए भी अकेला रहने की साधना बहुत बड़ी साधना है। ५२. भक्त प्रत्याख्यान से (भत्तपच्चक्खाणेणं)
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भक्त प्रत्याख्यान आमरण अनशन का एक प्रकार है। इसका परिणाम जन्म-परम्परा और अल्पीकरण है । इसका हेतु आहार - त्याग का दृढ़ अध्यवसाय है। देह का आधार आहार और आहार विषयक आसक्ति है। आहार की आसक्ति और आहार—दोनों के त्याग से केवल स्थूल देह का ही नहीं, अपितु सूक्ष्म देह का भी बन्धन शिथिल हो जाता है । फलतः २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८६ तथाविधदृढाध्यवसायतया संसारात्पत्वापादनात् ।
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