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सम्यक्त्व-पराक्रम
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अध्ययन २६ : सूत्र २६-३२ टि० ३७-४१
अज्ञान के कारण आग्रह और राग-द्वेष बढ़ता है। इससे ३९. (सूत्र ३०) चित्त संक्लिष्ट रहता है। जब व्यक्ति को तत्त्व की प्राप्ति हो
उत्सुकता, निर्दयता, उद्धत मनोभाव, शोक और जाती है तब सारा संक्लेश मिट जाता है। वृत्तिकार ने एक चारित्र-विकार-इन सबका मूल सुख की आकांक्षा है। उसे प्राचीन गाथा उद्धृत की है
छोड़ कर कोई भी व्यक्ति अनुत्सुक, दयालु, उपशांत, अशोक जह जह सुयमो (मव) गाहइ अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं।
और पवित्र आचरण वाला हो सकता है। उत्सुकता आदि सुख तह तह गल्हाइ मुणी णवणवसंवेगसद्धाए।।
की आकांक्षा के परिणाम हैं। वे कारण के रहते परित्यक्त नहीं साधक जैसे-जैसे श्रुत का अवगाहन करता है, ज्ञान की होते। आवश्यक यह है कि कारण के त्याग का प्रयत्न किया गहराइयों में जाता है वैसे-वैसे उसे अतिशय रस आता है और जाए, परिणाम अपने आप त्यक्त हो जाएंगे। उसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है। उसमें संवेग के . ४०. (सूत्र ३१) नए-नए आयाम खुलते हैं और उसकी मानसिक प्रसन्नता संग और असंग–ये दो शब्द समाज और व्यक्ति के अत्यधिक बढ़ जाती है।'
सूचक हैं। अध्यात्म की भाषा में समुदाय-जीवी वह होता है, ३७. (सूत्र २६)
जिसका मन संगसक्त (अनेकता में लिप्त) होता है और इस सूत्र में एकाग्र मन की स्थापना (मन को एक
व्यक्ति-जीवी या अकेला वह होता है, जिसका मन असंग होता अग्र—आलम्बन पर स्थित करने) का परिणाम 'चित्त-निरोध'
है—किसी भी वस्तु या व्यक्ति में लिप्त नहीं होता। इसी तथ्य वतलाया गया है। तिरपनवे सूत्र में बतलाया गया है कि
के आधार पर यह कहा जा सकता है कि असंग मन वाला मन-गुप्ति से एकाग्रता प्राप्त होती है। इससे मन की तीन
समुदाय में रहकर भी अकेला रहता है और संग-लिप्त मन अवस्थाएं फलित होती हैं-(१) गुप्ति, (२) एकाग्रता और वाला
वाला अकेले में रह कर भी समुदाय में रहता है। (३) निरोध।
__ कहा जाता है चित्त चंचल है, अनेकाग्र है। वह किसी मन को चंचल बनाने वाले हेतुओं से उसे बचाना
एक अग्र (लक्ष्य) पर नहीं टिकता। किन्तु इस मान्यता में थोड़ा सुरक्षित रखना 'गुप्ति' कहलाती है। ध्येय-विषयक ज्ञान की
परिवर्तन करने की आवश्यकता है। चित्त अपने आप में चंचल एकतानता 'एकाग्रता' कहलाती है। मन की विकल्प-शून्यता को
या अनेकाग्र नहीं है। उसे हम अनेक विषयों में बांध देते हैं, 'निरोध' कहा जाता है।
तब वह संग-लिप्त बन जाता है और यह संग-लिप्तता ही महर्षि पतंजलि ने चित्त के चार परिणाम बतलाए हैं
उसकी अनेकाग्रता का मूल है। अनासक्त मन कभी चंचल नहीं (१) व्युत्थान, (२) समाधि-प्रारम्भ, (३) एकाग्रता और
होता और आसक्ति के रहते हुए कभी उसे एकाग्र नहीं किया (४) निरोध। यहां एकाग्रता और निरोध तुलनीय हैं।
जा सकता। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जितनी
आसक्ति उतनी अनेकाग्रता, जितनी अनासक्ति उतनी एकाग्रता, ३८. (सूत्र २७-२९)
पूर्ण अनासक्ति मन का अस्तित्व समाप्त। स्थानांग में उपासना के दस फल बताए गए हैं। उनमें
जैन आगमों में मुनि का एक विशेषण है-अप्रतिबद्ध से संयम और अनास्रव (अनाश्रव), तप और व्यवदान तथा
विहारी। मुनि की सारी जीवनचर्या अप्रतिबद्ध होती है, अक्रिया और सिद्धि का कार्य-कारण-माला के रूप में उल्लेख
व्यक्ति-विशेष या स्थान-विशेष से प्रतिबद्ध नहीं होती। प्रस्तुत है। बौद्ध-दर्शन में वाईस इन्द्रियां मानी गयी हैं। उनमें श्रद्धा,
सूत्र की यही प्रतिध्वनि है। प्रतिबद्धता आसक्ति है। वह व्यक्ति वीर्य, स्मृति, समाथि और प्रज्ञा इन पांच इन्द्रियों तथा
को बांधती है, मन को व्यग्र बनाती है। दशवकालिक सूत्र में अहातमाज्ञास्यामीन्द्रिय. आजेन्द्रिय और अज्ञातावीन्द्रिय---इन कहा है-"गामे कले वा नगरे व देसे। ममत्तभावं न कहिं चि तीन अन्तिम इन्द्रियों से विशुद्धि का लाभ होता है, इसलिए
कुज्जा।" (चूलिका २८.)। इन्हें व्यवदान का हेतु माना गया है। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति,
४१. विविक्त-शयनासन (विवित्तसयणासण) समाधि और प्रज्ञा के बल से क्लेश का विष्कम्भन और
बाह्य-तप का छठा प्रकार विविक्त-शयनासन है। तीसवें आर्य-मार्ग का आवहन होता है। अन्तिम तीन इन्द्रिय-अनास्रव
अध्ययन में बताया गया है-एकांत, आवागमन-रहित और हैं। निर्वाणादि के उत्तरोत्तर प्रतिलम्भ में इनका आधिपत्य है।"
स्त्री-पशु-वर्जित स्थान में शयनासन करने का नाम विविक्तव्यवदान का अर्थ 'कर्म-क्षय' या 'विशुद्धि' है। यहां निर्जरा के
शयनासन है।" बौद्ध-साहित्य में विविक्त-स्थान के नौ प्रकार स्थान में इसका प्रयोग हुआ है।
बतलाए गए हैं—(१) अरण्य, (२) वृक्षमूल, (३) पर्वत,
या विशुन इनका आधिपत्यनायव भी बाह्य-तप
१. वृहवृत्ति, पत्र ५०६ । २. पातजलयोगदर्शन, ३६ ३।१२। 3. टागं, ३1४11
४. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० ३२८-३२६। ५. उत्तरज्झयणाणि, ३०१२८ ।
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