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राम्यक्त्व-पराक्रम
(५) पूर्वांश सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क (६) पूर्वांश सहित नपुंसक वेद (७) पूर्वाश सहित स्वीयेष
(८) पूर्वांश सहित हास्यादि षट्क (६) पूर्वांश सहित पुरुष-वेद के दो खण्ड
(१०) पूर्वांश सहित संज्वलन क्रोध (११) पूर्वांश सहित संज्वलन मान (१२) पूर्वांश सहित संज्वलन माया (१३) पूर्वांश सहित संज्वलन लोभ
नपुंसक वेद में
स्त्री वेद में
हास्यादि षट्क (हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा) में
पुरुष - वेद के दो खण्डों में तृतीय खण्ड के संज्वलन क्रोध में
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अध्ययन २६ : सूत्र ७३,७४ टि० ७१-७२
गाढ़ नहीं होता---निधत्त और निकाचित अवस्थाएं नहीं होतीं । इसीलिए उसे 'बद्ध और स्पृष्ट' कहा है। जिस प्रकार घड़ा आकाश से स्पृष्ट होता है, उसी प्रकार ईर्यापथिक-कर्म केवली की आत्मा से बद्ध-स्पृष्ट होता है। जिस प्रकार चिकनी भित्ति पर फेंकी हुई धूलि उससे स्पृष्ट मात्र होती है, उसी प्रकार ईर्यापथिक-कर्म केवली की आत्मा से स्पृष्ट मात्र होता है । प्रथम समय में वह बद्ध-स्पृष्ट होता है और दूसरे समय में वह उदीरित' - उदय - प्राप्त और बेदित-अनुभव प्राप्त होता है। तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है और चौथे समय में वह अकर्म बन जाता है-फिर वह उस जीव के कर्म-रूप में परिणत नहीं होता ।
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संज्वलन मान में संज्वलन माया में संज्वलन लोभ में
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संज्वलन लोभ के फिर संख्येय खण्ड किए जाते हैं। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक अन्तर्मुहूर्त में क्षीण किया जाता है। उनका क्षय होते-होते उनमें से जो चरम खण्ड बचता है उसके फिर असंख्य सूक्ष्म खण्ड होते हैं। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। उनका चरम खण्ड भी फिर असंख्य सूक्ष्म खण्डों की रचना करता है। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है। उसके क्षीण होने पर यथाख्यात या वीतराग चारित्र की प्राप्ति होती है। वह अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। उसके अन्तिम दो समय जब शेष होते हैं, तब पहले समय में निद्रा, प्रचला, देव-गति, आनुपूर्वी, वैक्रिय - शरीर, वज्र ऋषभ को छोड़कर शेष सब संहनन, संस्थान, तीर्थङ्कर नाम कर्म और आहारक- नाम कर्म क्षीण होते हैं। चरम समय में जो क्षीण होता है वह सूत्र में प्रतिपादित है, जैसे- पंचविध ज्ञानावरणीय, नव-विध दर्शनावरणीय और पंच- विथ अन्तराय- ये सारे एक ही साथ क्षीण होते हैं। इस प्रकार चारों घातिकर्मों के क्षीण होते ही निरावरण ज्ञान-केवलज्ञान और केवलदर्शन का उदय हो जाता है।
केवली होने के पश्चात् भवोपग्राही (जीवन धारण के हेतुभूत) कर्म शेष रहते हैं, तब तक वह इस संसार में रहता है। इसकी कालमर्यादा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः देश - ऊन (नौ वर्ष कम ) करोड़ पूर्व की है। इस अवधि में केवली जब तक सयोगी ( मन, वचन और काया की प्रवृत्ति युक्त) रहता है, तब तक उसके ईर्यापथिक-कर्म का बन्धन होता है। उसकी स्थिति दो समय की होती है। उसका बन्ध
३. ओवाइयं, सूत्र १८२ ।
४. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ३८३६ :
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१.
विशेष जानकारी के लिए देखिए -सूयगडो, २।२, तेरहवां क्रियास्थान । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६६ : उदीरित का अर्थ उदय प्राप्त है। किन्तु उदीरणा के द्वारा उदय प्राप्त नहीं है। क्योंकि वहां उदीरणा होती ही नहीं— 'उदीरणायास्तत्रासंभवात्' ।
सेयाले- -यह देशी शब्द है । इसका अर्थ है--अन्त में अर्थात् भविष्य काल में, अन्तिम समय- चौथे समय में । ७१. शेष आयुष्य का ( अहाउयं )
यथायुः का अर्थ पूर्ण आयुष्य काल है। स्थानांग २ । २६६, ३।१२२, ४।१३४ में इस शब्द का प्रयोग हुआ है । जिसके आयुष्य का अपवर्तन नहीं होता, उसे यथायुः कहा जाता है प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ केवली होने के पश्चात् बचे आयुष्य से है।
७२. (सत्र ७३-७४)
केवली का जीवन-काल जब अन्तर्मुहूर्त्त मात्र शेष रहत है, तब वह योग निरोध ( मन, वचन और काया की प्रवृत्ति क पूर्ण निरोध) करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है— शुक्ल ध्यान के तृतीय चरण (सूक्ष्म क्रिय अप्रतिपाति) में वर्तत हुआ वह सर्व प्रथम मनोयोग का निरोध करता है। प्रति समय मन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख् समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर वचनयोग का निरोध करता है। प्रति समय वचन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर उच्छ्वास- निश्वास का निरोध करता है । प्रति समय काय - योग के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण (उच्छ्वास - निश्वास सहित ) निरोध कर पाता है । औपपातिक में उच्छ्वास- निश्वास-निरोध के स्थान पर काय-योग के निरोध का उल्लेख है ।
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मुक्त होने वाला जीव शरीर की अवगाहना का तीसरा भाग जो पोला होता है, उसे पूरित कर देता है और आत्मा की शेष दो भाग जितनी अवगाहना रह जाती है। यह क्रिया काय-योग-निरोध के अन्तराल में ही निष्पन्न होती है ।'
देहतिभागो सुसिरं, तप्पूरणओ तिभागहीणोत्ति ।
से जोगनिरोहेच्चिय, जाओ सिद्धोवि तदवत्थो ।।
५. (क) उत्तरज्झयणाणि ३६ १६४ ।
(ख) ओवाइयं, सूत्र १६५ ।
६. (क) विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३६८१ : 'देह तिभागं च मुंचंतो' । (ख) वही, गाथा ३६८२ सम्मई स कायजोग' ।
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