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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : सूत्र ६३-७२ टि०६८-७०
शैलेशी-शैलेशी शब्द शिला और शील इन दो रूपों से दर्शन और चारित्र की आराधना स्वयं प्राप्त हो जाती है। जो व्युत्पन्न होता है:
व्यक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता है, वह (१) 'शिला' से शैल और 'शैल+ईश' से शैलेश होता है। आठ कर्मों में जो कर्म ग्रन्थि-धाति कर्म का समुदय है, उसे शैलेश अर्थात् मेरु-पर्वत। शैलेश की भांति अत्यन्त स्थिर तोड़ डालता है। वह सर्वप्रथम मोहनीयकर्म की अठाईस प्रकृतियों अवस्था को शैलेशी कहा जाता है। 'सेलेसी' का एक संस्कृत को क्षीण करता है। क्षीण करने का क्रम इस प्रकार है-वह रूप शैलर्षि भी किया गया है। जो ऋषि शैल की तरह सुस्थिर सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के बहुत होता है, वह शैलर्षि कहलाता है।
भाग को अन्तर्मुहूर्त में एक साथ क्षीण करता है और उसके (२) शील का अर्थ समाधान है। जिस व्यक्ति को पूर्ण अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व के पुद्गलों में प्रक्षिप्त कर देता है। समाधान मिल जाता है—पूर्ण संवर की उपलब्धि हो जाती है, फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ मिथ्यात्व के बहुल भाग को वह 'शील का ईश' होता है। शील+ईश शीलेश। शीलेश की क्षीण करता है और उसके अंश को सम्यग्-मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त अवस्था को शैलेशी कहा जाता है।'
कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ सम्यक्-मिथ्यात्व ६८. (सूत्र ६३-७१)
को क्षीण करता है। इसी प्रकार सम्यक-मिथ्यात्व के अंश इन्द्रिय-निग्रह के आलापक के दो पद विशेष मननीय सहित सम्यक्त्व-मोह के पुद्गलों को क्षीण करता है। तत्पश्चात् हैं-'तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ' तथा 'पुव्वबद्धं च निज्जरेइ'। सम्यक्त्व-मोह के अवशिष्ट पुद्गलों सहित अप्रत्याख्यान और ये पद स्वभाव-परिवर्तन के सूत्र हैं। इन्द्रियां राग-द्वेष की प्रत्याख्यान-चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) को क्षीण करना उत्पत्ति के हेतु हैं। राग और द्वेष मोहकर्म की प्रतियां हैं। शुरू कर देता है। उसके क्षय-काल में वह दो गति (नरक गति श्रोत्रेन्द्रिय का असंयम मनोज्ञ शब्द के प्रति राग उत्पन्न करता और तिर्यंच गति), दो आनुपूर्वी (नरकानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी), है और अमनोज्ञ शब्द के प्रति द्वेष उत्पन्न करता है। इस जाति-चतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय कर्म-बंध का हेत बन जाती है। यह परम्परा आतप, उद्योत, स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम, साधारण, अपर्याप्त, निरंतर चालू रहती है। श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने पर निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि को क्षीण करता है। 'तप्पच्चइयं'-श्रोत्रेन्द्रिय के निमित्त से होने वाला कर्म बंध फिर इनके अवशेष को नपुंसक-वेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण रुक जाता है और अतीत श्रोत्रेन्द्रिय के निमित्त से जो कर्मबन्ध करता है। उसके अवशेष को स्त्री-वेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण हुआ है उसकी निर्जरा हो जाती है।
करता है। उसके अवशिष्ट अंश को हास्यादि-षट्क (हास्य, प्रस्तुत आलापक में 'तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ' इतना रति, अरति, भय, शोक और जुगुत्सा) में प्रक्षिप्त कर उसे पाठ है। कषाय विजय के आलापक में संबद्ध कषाय का क्षीण करता है। मोहनीय कर्म को क्षीण करने वाला यदि वह नामोल्लेख मिलता है-'कोहवेयणिज्जं कम्मं न वंधइ', पुरुष होता है तो पुरुष-वेद के दो खण्डों को और स्त्री या 'माणवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ,' 'मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ', नपुंसक होता है तो वह अपने-अपने वेद के दो-दो खण्डों को 'लोभवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ'।
हास्यादि षट्क के अवशिष्ट अंश सहित क्षीण करता है। फिर क्रोध-विजय से क्षान्ति उत्पन्न होती है तथा क्रोध वेदनीय । वेद के तृतीय खण्ड सहित संज्वलन क्रोध को क्षीण करता है। कर्म का बन्ध नहीं होता और पूर्वबद्ध क्रोधवेदनीय कर्म की इसी प्रकार पूर्वांश सहित संज्वलन, मान, माया और लोभ को निर्जरा होती है।
क्षीण करता है। ६९. (सूत्र ६७)
यंत्र देखिएइन्द्रिय चेतना मन से सर्वथा प्रतिबद्ध नहीं होती। उसकी
क्षय
अवशिष्ट अंश का प्रक्षेप स्वतंत्रता भी है। इसीलिए किसी व्यक्ति में संगीत सुनने की
(१) अनन्तानुबन्धी चतुष्क अधिक रुचि होती है, किसी में रसास्वादन की और किसी में
(क्रोध, मान, माया, लोभ) मिथ्यात्व के पुद्गलों में दृश्यों को देखने की। यह रुचि की विचित्रता इन्द्रिय चेतना की
दिखन का। यह हाच का वाचत्रता इन्द्रय चतना का (२) पूर्वांश सहित मिथ्यात्व सम्यग्-मिथ्यात्व के स्वतंत्रता का प्रमाण है। यदि इन्द्रिय चेतना मन से सर्वथा
पुद्गलों में प्रतिबद्ध होती तो वह समान रूप से कार्य करती। (३) पूर्वाश सहित ७०. (सूत्र ७२)
सम्यग्-मिथ्यात्व
सम्यक्त्व के पुद्गलों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना राग, द्वेष और (४) पूर्वांश सहित सम्यक्च अप्रत्याख्यान-चतुष्क और मिथ्या-दर्शन से होती है। इन पर विजय प्राप्त करने से ज्ञान,
प्रत्याख्यान-चतुष्क में १. (क) विशेषावश्यक भाष्य, ३६८३-३६८५।
२. बृहवृत्ति, पत्र ५६४-५६६। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६३ ।
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