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तपो-मार्ग-गति
अध्ययन ३० : श्लोक २७-३५
२७.ठाणा वीरासणाईया
जीवस्स उ सुहावहा। उग्गा जहा धरिज्जति कायकिलेसं तमाहियं ।।
५०९ स्थानानि बीरासनादिकानि जीवस्य तु सुखावहानि। उग्राणि यथा धार्यन्ते कायक्लेशः स आख्यातः।।
आत्मा के लिए सुखकर वीरासन आदि उत्कट आसनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे कायक्लेश कहा जाता है।
२८.एगंतमणावाए
इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं।।
एकांते अनापाते स्त्रीपशुविवर्जिते। शयनासनसेवन विविक्तशयनासनम्।।
एकांत, अनापात (जहां कोई आता-जाता न हो)
और स्त्री-पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना विविक्त-शयनासन (संलीनता) तप
यह वाह्य तप संक्षेप में कहा गया है। अब मैं अनुक्रम से आभ्यंतर तप को कहूंगा।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग—यह आभ्यंतर तप है।
२६.एसो बाहिरगतवो
समासेण वियाहिओ। अमितरं तवं एत्तो
वुच्छामि अणुपुव्वसो।। ३०. पायच्छित्तं विणओ
वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो
एसो अब्भितरो तवो।। ३१. आलोयणारिहाईयं
पायच्छित्तं तु दसविहं। जे भिक्खू वहई सम्म
पायच्छित्तं तमाहियं ।। ३२. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं
तहेवासणदायणं। गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ।।
एतद् बाह्यकं तपः समासेन व्याख्यातम् । आभ्यंतरं तप इतो वक्ष्याम्यनुपूर्वशः।। प्रायश्चित्तं विनयः वैयावृत्त्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं च व्युत्सर्गः एतदाभ्यंतरं तपः।। आलोचनार्हादिकं प्रायश्चित्तं तु दशविधम् । यद् भिक्षुर्वहति सम्यक् प्रायश्चित्तं तदाख्यातम्।। अभ्युत्थानमञ्जलिकरणं तथैव आसनदानम्। गुरुभक्तिः भावशुश्रूषा विनय एष व्याख्यातः।।
आलोचनाह आदि जो दस प्रकार का प्रायश्चित्त है, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है।"
अभ्युत्थान (खड़े होना), हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय कहलाता है।
आचार्य आदि सम्बन्धी दस प्रकार के वैयावृत्त्य का यथाशक्ति आसेवन करने को वैयावृत्त्य कहा जाता
आचार्यादिके च वैयावृत्त्ये दशविधे। आसेवनं यथास्थाम वैयावृत्त्यं तदाख्यातम्।।
३३. आयरियमाइयम्मि य
वेयावच्चम्मि दसविहे। आसेवणं जहाथामं
वेयावच्चं तमाहियं ।। ३४. वायणा पुच्छणा चेव
तहेव परियट्टणा। अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भये ।।
वाचना प्रच्छना चैव तथैव परिवर्तना। अनुप्रेक्षा धर्मकथा स्वाध्यायः पञ्चधा भवेत्।।
स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है१. वाचना (अध्यापन) २. पृच्छना ३. परिवर्तना (पुनरावृत्ति) ४. अनुप्रेक्षा (अर्थ-चिंतन) ५. धर्मकथा।
३५. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता
झाएज्झा सुसमाहिए। धम्मसुक्काई झाणाइं झाणं तं तु बुहा वए।।
आर्तरौद्रे वर्जयित्वा ध्यायेत् सुसमाहितः। धर्मशुक्ले ध्याने ध्यानं तत्तु बुधा वदन्ति ।।
सुसमाहित मुनि आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करे। बुध-जन उसे ध्यान कहते हैं।"
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