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'उत्तरज्झयणाणि
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योग निरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। उसे 'अयोगी गुणस्थान' भी कहा जाता है। न विलम्ब से और न शीघ्रता से, किन्तु मध्यम-भाव से पांच ह्रस्व-अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ) का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय तक अयोगी अवस्था रहती है। उस अवस्था में शुक्ल- ध्यान का चतुर्थ चरण - 'समुच्छिन्न-क्रियअनिवृत्ति' नामक ध्यान होता है। वहां चार अघाति या भवोपग्राही कर्म एक साथ क्षीण हो जाते हैं। उसी समय औदरिक, तेजस और कार्मण शरीर को सर्वथा छोड़कर वह ऊर्ध्व - लोकान्त तक चला जाता है। 1
यहां मूलपाठ में 'ओरालिय-कम्माइं' इतना ही है । तैजस का उल्लेख नहीं है। बृहद्वृत्तिकार ने उपलक्षण से उसका स्वीकार किया है।' औपपातिक में तैजस शरीर का प्रत्यक्ष ग्रहण है।
गति दो प्रकार की होती है- (१) ऋजु और ( २ ) वक्र । मुक्त5- जीव का ऊर्ध्व-गमन ऋजु श्रेणी (ऋजु आकाश प्रदेश की पंक्ति) से होता है, इसलिए उसकी गति ऋजु होती है। वह एक क्षण में ही सम्पन्न हो जाती है।
गति के पांच भेद बतलाए गए हैं- ( १ ) प्रयोग गति, (२) तत गति, (३) बन्धन- छेदन गति, (४) उपपात गति और (५) विहायो गति । विहायो गति १७ प्रकार की होती है। उसके प्रथम दो प्रकार हैं- ( १ ) स्पृशद् गति और ( २ ) अस्पृशद् गति । * एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कंधों का स्पर्श करते हुए गति करता है, उस गति को 'स्पृशद् गति' कहा जाता है। एक परमाणु दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कंधों का स्पर्श न करते हुए गति करता है, उस गति को 'अस्पृशद् गति' कहा जाता है।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ २. ओवाइयं, सूत्र १८२ :
औदारिककार्मणे शरीरे उपलक्षणत्वात्तैजसं च । .. खवेत्ता ओरालियतेयकम्माई.
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अध्ययन २६ : सूत्र ७३-७४ टि० ७२
मुक्त-जीव अस्पृशद् गति से ऊपर जाता है। शांत्याचार्य के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह नहीं है कि वह आकाश-प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता, किन्तु उसका अर्थ यह है कि वह मुक्त जीव जितने आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, उतने ही आकाश-प्रदेशों का स्पर्श करता है। उनसे अतिरिक्त प्रदेशों का नहीं, इसलिए उसे 'अस्पृशद् गति' कहा गया है।
अभयदेव सूरि के अनुसार मुक्त-जीव अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही ऊपर चला जाता है। यदि अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श करता हुआ वह ऊपर जाए तो एक समय में वह वहां पहुंच ही नहीं सकता। इसके आधार पर अस्पृशद् गति का अर्थ होगा- 'अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना मोक्ष तक पहुंचने वाला।'
आवश्यक चूर्णि के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह होगा कि मुक्त जीव दूसरे समय का स्पर्श नहीं करता, एक समय में ही मोक्ष स्थान तक पहुंच जाता है। किन्तु 'एग समएणं अविग्गहेणं' पाठ की उपस्थिति में यह अर्थ यहां अभिप्रेत नहीं है।
शांत्याचार्य और अभयदेव सूरि द्वारा कृत अर्थ इस प्रकार है– (१) मुक्त - जीव स्वावगाढ़ आकाश-प्रदेशों से अतिरिक्त प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता हुआ गति करता है और (२) अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही गति करता है। ये दोनों ही अर्थ घटित हो सकते हैं।
उपयोग दो प्रकार का होता है– (१) साकार और (२) अनाकार जीव साकार उपयोग अर्थात् ज्ञान की धारा में ही मुक्त होता है।
६. औपपातिक सूत्र १८२, वृत्ति पृ० २१६ : अस्पृशन्तीसिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्स सोऽस्पृशद्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः इष्यते च तत्रैक एवं समयः य एव चायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एव निर्वाणसमयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्यामावादन्तरालप्रदेशानामसंस्पर्शनमिति ।
३. पण्णवणा, पद १६ १७, ३७ ।
४. वही, पद १६ ३६, ४०।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ अस्युशद्गतिरिति, नायमर्थो यथा नायमाकाशप्रदेशान्न स्पृशति अपि तु यावत्सु जीवो ऽवगाढ़स्तावत एवं स्पृशति न तु ततो ऽतिरिक्तमेकमपि प्रदेशम् ।
७.
आवश्यकचूर्णि अफुसमाणगती वितियं समयं ण फुसति
(अभियान राजेन्द्र भाग १, पृ० ६७५) ।
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