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तीसइमं अज्झयणं : तीसवां अध्ययन
तवमग्गगई : तपो-मार्ग-गति
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद राग-द्वेष से अर्जित पाप-कर्म को भिक्षु तपस्या से जिस प्रकार क्षीण करता है, उसे एकाग्र-मन होकर सुन।
प्राणवध, मृषावाद, अदत्त-ग्रहण, मैथुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन से विरत जीव अनाश्रव होता है।
यथा तु पापक कर्म रागदोषसमर्जितम्। क्षपयति तपसा भिक्षुः तमेकाग्रमनाः शृणु।। प्राणवधमृषावादअदत्तमैथुनपरिग्रहेभ्यो विरतः। रात्रिभोजनविरतो जीवो भवति अनाश्रवः।। पंचसमितस्त्रिगुप्तः अकषायो जितेन्द्रियः। अगौरवश्च निःशल्यः जीवो भवत्यनाश्रवः।।
पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, अकषाय, जितेन्द्रिय, अगौरव (गर्व रहित) और निःशल्य जीव अनाश्रव होता है।
इनसे विपरीत आचरण में राग-द्वेष से जो कर्म उपार्जित होता है, उसे भिक्षु जिस प्रकार क्षीण करता है, उसे एकाग्र-मन होकर सुन।
१. जहा उ पावगं कम्म
रागदोससमज्जियं। खवेइ तवसा भिक्खू
तमेगग्गमणो सुण।। २. पाणवहमुसावाया
अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ। राईभोयणविरओ जीवो भवइ अणासवो।। पंचसमिओ तिगुत्तो अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो य निस्सल्लो
जीवो होइ अणासवो।। ४. एएसिं तु विवच्चासे
रागद्दोससमज्जियं। जहा खवयइ भिक्खू
तं मे एगमणो सुण।। ५. जहा महातलायस्स
सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिवणाए तवणाए
कमेणं सोसणा भवे ।। ६. एवं तु संजयस्सावि
पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्म
तवसा निज्जरिज्जइ।। ७. सो तवो दुविहो वुत्तो
बाहिरब्भतरो तहा। बाहिरो छविहो वुत्तो एवमन्भतरो तवो।। अणसणमूणोयरिया
या भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ।।
एतेषां तु विव्यत्यासे रागदोषसमर्जितम्। यथा क्षपयति भिक्षुः तन्मे एकमनाः शृणु।। यथा महातडागस्य सन्निरुद्ध जलागमे। उत्सेचनेन तपनेन क्रमेण शोषणं भवेत् ।। एवं तु संयतस्यापि पापकर्मनिराश्रये। भवकोटिसंचितं कर्म तपसा निर्जीर्यते।।
जिस प्रकार कोई बड़ा तालाव जल आने के मार्ग का निरोध करने से, जल को उलीचने से, सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है
उसी प्रकार संयमी पुरुष के पाप-कर्म आने के मार्ग का निरोध होने से करोड़ों भवों के संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं।
वह तप दो प्रकार का कहा है—बाह्य और आभ्यंतर।' वाह्य तप छह प्रकार का है, उसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है।
तत्तपो द्विविधमुक्तं बाह्यमाभ्यंतरं तथा। बाह्यं षड्विधमुक्तं एवमाभ्यन्तरं तपः।। अनशनमूनोदरिका भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः। कायक्लेश: संलीनता च बाह्यं तपा भवति।।
(१) अनशन, (२) ऊनोदरिका, (३) भिक्षाचर्या, (४) रस- परित्याग, (५) काय-क्लेश और (६) संलीनता- यह बाह्य तप है।
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