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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : सूत्र ४३-४८
आउयं नामं गोयं । तओ पच्छा आयुः नाम गोत्रम् । ततः पश्चात् को क्षीण कर देता है। उसके पश्चात् वह सिद्ध सिज्झई बुज्झइ मुच्चइ परि- सिध्यति, 'बुज्झइ' मुच्यते, परि- होता है, प्रशान्त होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत निव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं निर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति।। होता है और सब दुःखों का अंत करता है।
करेइ।। ४३. पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे किं प्रतिरूपतया भदन्त ! जीवः भंते! प्रतिरूपता (जिनकल्पिक जैसे आचार का जणयइ? किं जनयति?
पालन करने) से जीव क्या प्राप्त करता है? पडिरूवयाए णं लाघवियं प्रतिरूपतया लाघविता प्रतिरूपता से बह हल्केपन को प्राप्त होता है। जणयइ। लहुभूए णं जीवे जनयति। लघुभूतो जीवः अप्रमत्तः उपकरणों के अल्पीकरण से हल्का बना हुआ जीव अप्पमत्ते पागडलिंगे पसथलिंगे प्रकटलिंग: प्रशस्तलिंग: विशुद्ध- अप्रमत्त, प्रकटलिंग वाला, प्रशस्तलिंग वाला, विशुद्ध विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते । सम्यक्त्वः समाप्तसत्त्वसमिति: सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और समिति से परिपूर्ण, सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीसस- सर्वप्राणभूतजीवसत्चेषु विश्वस- सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय णिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए नीयरूपो प्रतिलेखो जितेन्द्रियो रूप वाला, अप्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल विउलतवसमिइसमन्नागए यावि । विपुलतपःसमितिसमन्वागतश्चापि तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला भवइ।। भवति।।
होता है। ४४. वेयावच्चेणं भंते! जीवे किं
वैयावृत्त्येन भदन्त ! जीवः भत! वयावृत्य (साधु-सब का सवा करना सजाव जणयइ? किं जनयति?
क्या प्राप्त करता है? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं
वैयावृत्त्येन तीर्थकर
वैयावृत्य से वह तीर्थङ्कर-नाम-गोत्र कर्म का कम्मं निबंधइ।। नामगोत्रं कर्म निबध्नाति।।
अर्जन करता है।" ४५. सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते!
सर्वगुणसम्पन्नतया भदन्त !
भंते ! सर्व-गुण-सम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता जीवे किं जणयइ?
जीवः किं जनयति? सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुण- सर्वगुणसम्पन्नतया अपुनरावृति
सर्व-गुण सम्पन्नता से६ वह अपुनरावृत्ति रावत्ति जणयइ। अपूणरावति जनयति। अपनरावत्तिं प्राप्तश्च (मुक्ति) को प्राप्त होता है। अपुनरावृत्ति को प्राप्त पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणं जीवः शारीरमानसानां दःखानां करने वाला जीव शारीरिक और मानसिक दु:खों का दुक्खाणं नो भागी भवइ।। नो भागी भवति।।
भागी नहीं होता। ४६.वीयरागयाए णं भंते ! जीवे किं वीतरागतया भदन्त ! जीव: भंते ! वीतरागता से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ?
किं जनयति? वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि वीतरागतया स्नेहानुबंधनानि
वीतरागता से वह स्नेह के अनुबन्धनों और तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिदइ तष्णानबंधनानि च व्यच्छिनत्ति। तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद करता है। तथा मणुन्नेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसू मनोज्ञेप शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेष मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध से विरक्त चेव विरज्जइ।। चैव विरज्यते।।
हो जाता है। ४७.खंतीए णं भंते! जीवे किं जणयइ? क्षान्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति? भंते ! क्षांति (सहिष्णुता) से जीव क्या प्राप्त करता है? खंतीए णं परीसहे जिणइ।। क्षान्त्या परीपहान् जयति।।
क्षांति से वह परीषहों पर विजय प्राप्त कर
लेता है। ४८.मुत्तीए णं भंते ! जीवे किं मुक्त्या भदन्त! जीव: किं
भंते ! मुक्ति (निर्लोभलता) से जीव क्या प्राप्त करता जणयइ?
जनयति? मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ। मुक्त्या आकिंचन्यं जनयति। मुक्ति से वह अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचणे य जीवे अत्थलोलाणं अकिंचनश्च जीवो अर्थलोलाना अकिंचन जीव अर्थ-लोलुप पुरुषों के द्वारा अप्रार्थनीय अपत्थणिज्जो भवइ।। अप्रार्थनीयो भवति।।
होता है उसके पास कोई याचना नहीं करता।
अकिचनश्च जीवी अर्थलालाना अकिंचन जीव अर्थ-लोलुप पुरुषों के द्वारा प्रार्थनीय
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