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उत्तरायणाणि
६४. चक्खिदियनिग्गणं भंते! जीवे किं जणयइ ?
यविवदियनिग्गणं मनुष्णामगुण्णेसु रुवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।।
६५. घाणिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ ?
घाणिदियनिग्गहेणं मणुष्णामगुण्णेसु गंधेसु रागदोसनिग्गरं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।।
६६. जिब्भिदियनिग्गणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
जिम्मिदियनिग्गणं मणुष्णामणुण्णेसु रसेसु रागदोसनिग्ग जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंध, पुचबद्धं च निज्जरेइ ।।
६७. फासिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ ?
फासिंदियनिग्महेणं मणुष्णामणुष्णेसु फासेसु रागवोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्यब च निज्जरेइ ।।
६८. कोहविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ ?
कोहविजएणं खंतिं जणयइ, कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरे ||
६६. माणविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ ?
माणविजएणं मद्दवं जणयद, माणवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्यबद्ध च निज्ञ्जरेइ ||
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चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण मनोलामनोज्ञेषु रूपेषु रामदोषानिय जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।।
घ्राणेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
घ्राणेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु गन्धेषु रागदोषनिग्रहं जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।।
जिहेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
जिवेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु रसेषु रागदोषनिग्रह जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न नाति पूर्वयद्ध व निर्जरयति ।।
स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पर्शेषु रागदोषनिग्रहं जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।।
क्रोधविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
क्रोधविजयेन क्षांतिं जनयति, क्रोधवेदनीयं कर्म न बध्नाति, पूर्व व निर्जरयति ।।
मानविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
मानविजयेन मार्दवं जनयति, मानवेदनीयं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।।
अध्ययन २६ : सूत्र ६४-६६
भंते! चक्षु इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ?
चक्षु इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनो रूपों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। वह रूप सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म - बन्धन नहीं करता और पूर्व - बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है
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भंते! घ्राण इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ?
घ्राण- इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष क निग्रह करता है। वह गन्ध सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म-बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। भंते! जिहा इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ?
जिहा इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। वह रस सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म - बन्धन नहीं करता और पूर्व - बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है।
भंते! स्पर्श इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ?
स्पर्श इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शो में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह स्पर्श सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। भंते! क्रोध-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ?
क्रोध - विजय से वह क्षमा को उत्पन्न करता है। वह क्रोध- वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। भंते! मान- विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ?
मान - विजय से वह मृदुता को उत्पन्न करता है । वह मान वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है ।
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