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सम्यक्त्व-पराक्रम
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अध्ययन २६ : सूत्र ८-१३ टि० ११-१८
अल्प हो जाती है और उनका विपाक मन्द हो जाता है। इस की विशुद्धि का तात्पर्य दर्शन के आचार का अनुपालन होना प्रकार मोहनीय कर्म निर्वीर्य बन जाता है।
चाहिए। यह भक्तियोग का सूत्र है। दर्शन के आठ आचार ११. अनादर को (अपुरक्कार)
२८।३१ में निर्दिष्ट हैं। उनका संबंध दर्शन-विशुद्धि से है। यहां 'अपूरक्कार'-अपुरस्कार का अर्थ 'अनादर' या स्तुति से तीर्थकर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। उससे 'अवज्ञा' है। यह व्यक्ति गुणवान् है, कभी भूल नहीं करता- दर्शनाचार के प्रति आस्था सुदृढ़ बनती है। इस स्थिति का नाम पुरस्कार है। अपने प्रमादाचरण को दूसरों वृत्तिकार ने विशुद्धि का अर्थ निर्मल होना किया है। के सामने प्रस्तुत करने वाला इससे विपरीत स्थिति को प्राप्त स्तुति के द्वारा दर्शन के उपघाती कर्म दूर होते हैं। फलतः होता है, वही अपुरस्कार है।
सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के लिए १२. अनन्त विकास का घात करने वाले ज्ञानावरण आदि। यह अर्थ घटित किया जा सकता है, किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व के कर्मों की परिणतियों को (अणंतघाइपज्जवे)
लिए यह अर्थ घटित नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्व के उपघाती ___ आत्मा के चार गुण अनन्त हैं--(१) ज्ञान, (२) दर्शन,
कर्म पहले ही नष्ट हो जाते हैं। (३) वीतरागता और (४) वीर्य । इनके आवारक परमाणुओं को
१६. (वंदणएणं...निबंधइ) ज्ञानावरण और दर्शनावरण, सम्मोहक परमाणुओं को मोह
___वंदना एक प्रवृत्ति है। उससे दो कार्य निष्पन्न होते हैंतथा विघातक परमाणुओं को अन्तराय कर्म कहा जाता है।
नीच गोत्र का क्षय-यह निर्जरा है तथा उच्च गोत्र का बंधवीतरागता का बाधक है मोह और वीर्य का बाधक है अन्तराय
यह पुण्य का बंध है। वंदना का मुख्य फल है-निर्जरा और कर्म। उनकी अनन्त-परिणतियों से आत्मा के अनन्त गुण प्रासंगिक फल है--पुण्य कर्म का बंध । इनसे यह सिद्धान्त फलित आवृत, सम्मोहित और प्रतिहत होते हैं।
होता है-जहां-जहां शुभ प्रवृत्ति है वहां-वहां निर्जरा है। एक १३. (सूत्र ८)
भी शुभ प्रवृत्ति ऐसी नहीं है जिससे केवल पुण्य का बंध हो आलोचना, निन्दा और गर्हा-ये तीनों प्रायश्चित्त सूत्र
और निर्जरा न हो। पुण्य का बंध निर्जरा का सहचारी कार्य है। हैं। इनके द्वारा प्रमादजनित आचरण का विशोधन किया जाता
१७. प्रतिक्रमण से (पडिक्कमणेणं) है। आलोचना का मूल आधार है-ऋजुता। माया, निदान
अकलंक ने प्रतिक्रमण का अर्थ-अतीत के दोषों से (पौदगलिक सख का संकल्प और मिथ्यादर्शनशल्य ये तीनों निवृत्त होना किया है।' हरिभद्रसूरी के अनुसार अशभ प्रवृत्ति साधना के विधन हैं। ये साधक को मोहासक्ति की ओर ले जाते
से फिर शुभ प्रवृत्ति में वापस आना प्रतिक्रमण है। अशुभ योग हैं। आलोचना साधक को आत्मा की ओर ले जाती है, इसलिए
से व्रत में छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं। प्रतिक्रमण से व्रत के छिद्र उससे मायात्रिक के कांटे निकल जाते निन्दा भक्त पनि पुनः निरुद्ध हो जाते हैं। सूत्रकार ने व्रत-छिद्र के निरोध के पश्चात्ताप की भावना है। उससे अकरणीय के प्रति विरक्ति पैदा पाच काम बतला होती है। गर्हा से व्यक्ति के अहंकार का विलय होता है। अहंकार
(१) आम्नव का निरोध हो जाता है। से ग्रस्त व्यक्ति उद्धतभाव से अनाचरण का आसेवन कर लेता (२) अशुभ प्रवृत्ति से होने वाले चरित्र के धब्बे समाप्त है। अहंकार का विलय होने पर आचरण संयत हो जाता है।
हो जाते हैं। १४. सामायिक से असत्प्रवृत्ति की विरति (सामाइएणं
(३) आठ प्रवचन माताओं (पांच समितियों और तीन सावज्जजोगविरइ)
गप्तियों) में जागरूकता बढ़ जाती है। सामायिक और सावद्ययोगविरति में कार्य-कारण संबंध
(४) संयम के प्रति एकरसता या समापत्ति सध जाती है। हैं। सावद्ययोगविरति कारण है, सामायिक कार्य है। कार्य और
(५) समाधि की उपलब्धि होती है। कारण एक साथ कैसे हो सकते हैं, इसके समाधान में १८. कायोत्सर्ग से (काउस्सग्गेण) वृत्तिकार ने बतलाया है कि वृक्ष कारण है और छाया कार्य है, सामाचारी-अध्ययन में कायोत्सर्ग को 'सर्व-दुःख विमोचक' फिर भी दोनों एक साथ उपलब्ध होते हैं।'
कहा है। शान्त्याचार्य ने कायोत्सर्ग का अर्थ-'आगमोक्त नीति १५. दर्शन (दर्शनाचार) की विशुद्धि (दंसणविसोहिं) के अनुसार शरीर को त्याग देना' किया है। क्रिया -विसर्जन
दर्शन का अर्थ है–सम्यक्त्व। प्रस्तुत प्रकरण में दर्शन और ममत्व-विसर्जन—ये दोनों आगमोक्त नीति के अंग हैं।
१. बृहवृत्ति, पत्र ५९०: विरतिसहितस्यैव सम्भवात्, न चैव ३. राजवार्तिक, ६।२४।
तुल्यकालत्वेनानयोः कार्यकारणभावासम्भव इति वाच्यं, केषुधित् ४. आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति। तुल्यकालेष्वपि वृक्षच्छायादिवत् कार्यकारणभावदर्शनाद् ।
५. उत्तरज्झयणाणि, २६।३८,४१,४६,४६। २. वही, पत्र ५८० : दर्शनं सम्यक्त्वं, तस्य विशुद्धिः-तदुपघातिकर्मापगमतो ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८१ : कायः-शरीर तस्योत्सर्गः-आगमोक्तनीत्या निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धिः।
परित्यागः कायोत्सर्गः।
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