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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : सूत्र १३-१७ टि० १६-२४
आवश्यक नियुक्ति में कायोत्सर्ग के पांच काम निर्दिष्ट हैं- २. कुछ मनुष्य महाकर्म के साथ मनुष्य भव में आते हैं (१) देह की जड़ता का विशोधन
और अल्पकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मुक्त (२) मति की जड़ता का विशोधन
हो जाते हैं, जैसे—गजसुकुमाल अनगार। यह दूसरे (३) सुख-दुःख की तितिक्षा
प्रकार की अन्तक्रिया है। (४) अनुप्रेक्षा
३. कुछ पुरुष महाकर्म के साथ मनुष्य भव में आते हैं (५) ध्यान।
और दीर्घकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मुक्त १९. (तीयपडुप्पन्न)
हो जाते हैं, जैसे-चक्रवर्ती सनत्कुमार। यह तीसरे यहां अतीत और प्रत्युत्पन्न-ये दो पद हैं। प्रत्युत्पन्न
प्रकार की अन्तक्रिया है। का अभिप्राय वर्तमान क्षण से नहीं है। अतीत का तात्पर्यार्थ है
कुछ पुरुष अल्पकर्म के साथ मनुष्य भव में आते हैं दूर का अतीत और प्रत्युत्पन्न का अर्थ है निकटवर्ती अतीत।
और अल्पकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मुक्त वर्तमान क्षण में प्रायश्चित्तार्ह प्रवृत्ति की विशोधि की जा रही है,
हो जाते हैं, जैसे-भगवती मरुदेवा। यह चौथे इसलिए प्रत्युत्पन्न का अर्थ निकटवर्ती अतीत करना उचित
प्रकार की अन्तक्रिया है।
इन कथाओं के लिए देखें-ठाणं ४।१ का टिप्पण। यहां प्रायश्चित्त के द्वारा प्रायश्चित्तार्ह प्रवृत्ति विवक्षित २२. वैमानिक देवों में (कप्पविमाणो...)
वृत्तिकार ने कल्प का अर्थ-बारह देवलोक और विमान २०. स्तव और स्तुति (थवथुइ)
का अर्थ-ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान किया है। सामान्यतः 'स्तुति' और 'स्तव' इन दोनों का अर्थ २३. काल-प्रतिलेखना...से (कालपडिलेहणयाए) 'भक्ति और बहुमानपूर्ण श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना' है। किन्तु श्रमण की दिन-चर्या में काल-मर्यादा का बहुत बड़ा साहित्य-शास्त्र की विशेष परम्परा के अनुसार एक, दो या स्थान रहा है। दशवैकालिक में कहा है-“वह सब काम ठीक तीन श्लोक वाली श्रद्धाञ्जलि को 'स्तुति' और तीन से अधिक समय पर करे। यही बात सूत्रकृतांग में कही गई है। श्लोक वाली श्रद्धाञ्जलि को 'स्तव' कहा जाता है। कुछ लोग व्यवहार में बताया गया है-अस्वाध्याय में स्वाध्याय न किया सात श्लोक तक की श्रद्धाञ्जलि को भी स्तुति मानते हैं। जाए। काल-ज्ञान के प्राचीन साधनों में 'दिक्-प्रतिलेखन' और २१. मोक्ष-प्राप्ति (अंतकिरिय)
'नक्षत्र-अवलोकन' प्रमुख थे। मुनि स्वाध्याय से पूर्व काल की अन्त का तात्पर्य है-भव या कर्मों का विनाश । उसको प्रतिलेखना करते थे। जिन्हें नक्षत्र-विद्या का कुशल ज्ञान होता, फलित करने वाली क्रिया अन्तक्रिया कहलाती है। तात्पर्यार्थ में वे इस कार्य के लिए नियुक्त होते थे। यांत्रिक घड़ियों के अभाव इसका अर्थ है.-मोक्ष। अन्तक्रिया फलित होती है सूक्ष्म शरीर में इस कार्य को बहुत महत्त्व दिया जाता था। विशेष विवरण के छूट जाने पर।
के लिए देखिए-ओघनियुक्ति, गा०६४१-६५४। स्थानांग में चार प्रकार की अन्तक्रिया का निर्देश प्राप्त २४. मार्ग (सम्यक्त्व) (मग्ग) है।' उनका संक्षित विवरण इस प्रकार है
शान्त्याचार्य ने मार्ग के तीन अर्थ किए हैं—(१) सम्यक्त्व'', १. कुछ मनुष्य अल्पकर्मों के साथ मनुष्य जीवन में (२) सम्यक्त्व एवं ज्ञान" और (३) मुक्ति-मार्ग।२
आते हैं, पर दीर्घकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मार्ग-फल का अर्थ 'ज्ञान' किया गया है। उत्तराध्ययन मुक्त हो जाते हैं, जैसे–चातुरंत चक्रवर्ती सम्राट् (२८।२) में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप–इन चारों को भरत। यह प्रथम प्रकार की अन्तक्रिया है। 'मार्ग' कहा है। प्रायश्चित्त के प्रकरण में मार्ग का अर्थ
आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४६२ : देहमइजडसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खा य अणुप्पेहा।
झायइ य सुहं झाणं, एयग्गो काउसग्गम्मि ।। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८१ : अतीतं चेह चिरकालभावित्वेन प्रत्युत्पन्नमिव
प्रत्युत्पन्नं चासन्नकालभावितयाऽतीतप्रत्युत्पन्नम्। ३. वही, पत्र ५८१ : प्रायश्चित्तं उपचारातू प्रायश्चित्ताहमतिचार। ४. वही, पत्र ५८१ :
एगदुगतिसिलोगा (थूइओ) अन्नेसिं जाव हुंति सत्तेव।
देविंदत्थवमाई तेण परं थुत्तया होति ।। ५. ठाणं, ४।।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८२ : कल्पा-देवलोका विमानानि-वेयकानुत्तर
विमानरूपाणि। ७. दसवेआलियं, ५२।४ : काले कालं समायरे। ८. सूयगडो, २१११५ : अन्नं अन्नकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं वत्थकाले,
लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले। ६. व्यवहार सूत्र, ७११०६ : नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा
असज्झाए सज्झाय करित्तए। १०. बृहवृत्ति, पत्र ५८३: मार्गः-इह ज्ञानप्राप्तिहेतुः सम्यक्त्वम्। ११. वही, पत्र ५७३ : यद्वा मार्ग-चारित्रप्राप्तिनिबन्धनतया दर्शनज्ञानाख्यम्। १२. वही, पत्र ५८३ : अथवा 'मार्ग च' मुक्तिमार्ग क्षायोपशमिकदर्शनादि। १३. वही, पत्र ५८३ : तत्फलं च ज्ञानम्।
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