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टिप्पण
अध्ययन २६ : सम्यक्त्व-पराक्रम
१. (संवेगेणं...........निव्वेएण)
अशुभ-योग की प्रवृत्ति छठे गुणस्थान तक हो सकती है और सम्यग्-दर्शन के पांच लक्षणों में संवेग दूसरा और निर्वेद कषाय जनित अशुभ-कर्म का बन्ध दसवें गुणस्थान तक होता तीसरा है। संवेग का अर्थ है 'मोक्ष की अभिलाषा" और निर्वेद है। इसलिए इसे इस रूप में समझना चाहिए कि जिसका दर्शन का अर्थ है 'संसार-त्याग की भावना या काम-भोगों के प्रति । विशुद्ध हो जाता है, अनन्तानुबन्धी चतुष्क सर्वथा क्षीण हो जाता उदासीन-भाव ।
है, उसके नये सिरे से मिथ्या-दर्शन के कर्म-परमाणुओं का श्रुतसागरसूरि ने निर्वेद के तीन अर्थ किए हैं- बन्ध नहीं होता क्योंकि मिथ्यात्व की विशोधि हो जाती है, उसका (१) संसार-वैराग्य, (२) शरीर-वैराग्य और (३) मोक्ष-वैराग्य। क्षय हो जाता है। तात्पर्यार्थ में वह व्यक्ति क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त
प्रस्तुत दो सत्रों में कहा गया है कि संवेग से धर्म-श्रन्दा कर लेता है। क्षायक सम्यक्त्वी दर्शन का आराधक होता है। उत्पन्न होती है और निर्वेद से विषय-विरक्ति। इन परिणामों के वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता अनुसार संवेग और निर्वेद की उक्त परिभाषाएं समीचीन हैं। है। इसका सम्बन्ध दर्शन की उत्कृष्ट आराधना से है। जघन्य कई आचार्य संवेग का अर्थ 'भव-वैराग्य' और निर्वेद का अर्थ और मध्यम आराधना वाले अधिक जन्मों तक संसार में रह 'मोक्षाभिलाषा' भी करते हैं। किन्तु इस प्रकरण से वे फलित सकते हैं। किन्तु उत्कृष्ट आराधना वाले तीसरे जन्म का नहीं होते।
अतिक्रमण नहीं करते। यह तथ्य भगवती (८४५६) से भी पातंजल योगदर्शन के व्याख्याकारों ने 'संवेग' शब्द की समर्थित है। गौतम ने पूछा-“भगवन् ! उत्कृष्ट दर्शनी कितने व्याख्या अनेक प्रकार से की है। मिश्रजी के अनुसार संवेग का जन्म में सिद्ध होता है ?" भगवान ने कहा-“गीतम! वह अर्थ वैराग्य है। विज्ञानभिक्ष 'उपाय के अनुष्ठान में शीघ्रता' उसी जन्म में सिद्ध हो जाता है और यदि उस जन्म में न हो को संवेग कहते हैं। भोजदेव के अनुसार क्रिया का हेतभत तो तीसरे जन्म में अवश्य हो जाता है।" संस्कार ही संवेग है।
जैन साधना-पद्धति का पहला सूत्र है--मिथ्यात्व-विसर्जन विशुद्धिमग्ग दीपिका के अनुसार जो मनोभाव उत्तम-वीर्य या दर्शन-विशुद्धि। दर्शन की विशुद्धि का हेतु संवेग है, जो वाली आत्मा को वेग के साथ कुशलाभिमुख करता है, वह नैसर्गिक भी होता है और अधिगमिक भी। साधना का दूसरा 'संवेग' कहलाता है। इसका अभिप्राय भी मोक्षाभिलाषा से सूत्र है-प्रवृत्ति-विसर्जन या आरम्भ-परित्याग। उसका हेतु भिन्न नहीं है।
निर्वेद है। जब तक निर्वेद नहीं होता, तब तक विषय-विरक्ति संवेग और धर्म-श्रदा का कार्य-कारण-भाव है। मोक्ष नहीं होती और उसके बिना आरम्भ का परित्याग नहीं होता। की अभिलाषा होती है तब धर्म में रुचि उत्पन्न होती है और दशवैकालिक नियुक्ति में भिक्षु में सतरह लिड्ग बताए गए हैं, जब धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है तब मोक्ष की अभिलाषा वहां संवेग और निर्वेद को प्रथम स्थान दिया गया है। विशिष्टतर हो जाती है। जव संवेग तीव्र होता है तब अनन्तानुबन्धी 'यथा यथा समायाति, संवित्तो तत्त्वमुत्तमम्। क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण हो जाते हैं, दर्शन विशुद्ध तथा तथा न रोचन्ते, विषया: सुलभा अपि।। हो जाता है।
यथा यथा न रोचन्ते, विषया: सुलभा आदि। जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, उसके कर्म का बन्ध तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।।' नहीं होता। वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही २. धर्मश्रद्धा से (धम्मसद्धाए) मुक्त हो जाता है। 'कम्मं न वंधई' इस पर शान्त्याचार्य ने निर्वेद का फल है-कामभोग अथवा इन्द्रिय-विषयों के लिखा है कि अशुभ-कर्म का वन्ध नहीं होता। सम्यग-दृष्टि के प्रति वैराग्य। धर्मश्रद्धा का फल है-पौलिक सूख के प्रति अशुभ-कर्म का बंध नहीं होता, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वैराग्य। इन दोनों परिभाषाओं से वैराग्य के दो अर्थ फलित
१. बृहबृत्ति, पत्र ५७७ : संवेगो---मुक्त्यभिलाषः। २. वही, पत्र ५७८ : 'निर्वेदन' सामान्यतः -संसारविषयेण कदाऽसी
त्यक्ष्यामीत्येवंरूषण। षट् प्राभृत, पृ० ३६३, मोक्ष प्राभृत ८२ टीका : निर्वेदः संसार-शरीर- भोग-विरागता।
४. पातंजलयोगदर्शन, १।२१, पृ०६०। ५. विशुन्द्रिमग्ग दीपिका ८, पृ०६८ : 'संवेगो' ति उत्तमविरियं यं पुग्गलं
बेगेन कुशलाभिमुखं करोति। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७७ : 'कर्म' प्रस्तावादशुभप्रकृतिरूपं न बध्नाति।
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