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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : सूत्र ५५-५६ ५५. वइगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं वारगुप्ततया भदन्त ! जीवः भंते ! वाग्-गुप्तता से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ?
किं जनयति? वइगुत्तयाए णं निध्वियारं वारगुप्ततया निर्विचारं वाग-गुप्तता से वह निर्विचार भाव को प्राप्त जणयइ। निव्वियारेणं जीवे जनयति। निर्विचारो जीवो होता है। निर्विचार जीव सर्वथा वाग्-गुप्त और वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते । वाग्गुप्तोऽध्यात्मयोगध्यानगुप्तश्चापि अध्यात्म-योग के साधन—चित्त की एकाग्रता आदि यावि भवइ।। भवति।।
से युक्त हो जाता है।
कायगुप्ततया भदन्त ! भंते ! काय-गुप्तता से जीव क्या प्राप्त करता है? जीवः किं जनयति?
५६.कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे
किं जणयइ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ।।
कायगुप्ततया संवरं जन- काय-गुप्तता से वह संवर (अशुभ प्रवृत्ति के यति। संवरेण कायगुप्तः पुनः निरोध) को प्राप्त होता है। संवर के द्वारा कायिक पापाश्रवनिरोधं करोति।। स्थिरता को प्राप्त करने वाला जीव फिर पाप-कर्म
के उपादान-हेतुओं (आश्रवों) का निरोध कर देता
५७.मणसमाहारणयाए णं भंते ! मनःसमाधारणेन भदन्त! भंते ! मन-समाधारणा-मन को आगम-कथित भावों जीवे किं जणयइ? जीवः किं जनयति?
में भली-भांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है ? मणसमाहारणयाए णं एगग्गं मनःसमाधारणेन ऐकायं मन-समाधारणा से वह एकाग्रता को प्राप्त जणयइ, जणइत्ता नाणपज्जवे जनयति, जनयित्वा ज्ञानपर्यवान् होता है। एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञान-पर्यवोंजणयइ, जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ जनयति, जनयित्वा सम्यक्त्वं विशोध- ज्ञान के विविध आयामों को प्राप्त होता है। ज्ञान-पर्यवों मिच्छत्तं च निज्जरेइ।। यति मिथ्यात्वञ्च निर्जरयति।। को प्राप्त कर सम्यक्-दर्शन को विशुद्ध और मिथ्यात्व
को क्षीण करता है।
५८.वइसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे वाक्समाधारणेन भदन्त! भते! वाक्-समाधारणा-वाणी को स्वाध्याय में किं जणयइ? जीवः किं जनयति?
भलीभांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है? वइसमाहारणयाए णं वइसाहार- वाक्समाधारणेन वाक्साधारण- वाक्-समाधारणा से वह वाणी के विषय-भूत णदंसणपज्जवे विसोहेइ, विसो- दर्शनपर्यवान् विशोधयति, विशोध्य दर्शन-पर्यवों-सम्यक्-दर्शन के विविध आयामों को हेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ सुलभबोधिकत्वं निवर्तयति, दुर्लभ- विशुद्ध करता है। वाणी के विषयभूत दर्शन-पर्यवों दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ।। बोधिकत्वं निर्जरयति।।
को विशुद्ध कर बोधि की सुलभता को प्राप्त होता है और बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता है।
५६.कायसमाहारणयाए णं भंते!
जीवे किं जणयइ ? कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ।।
कायसमाधारणेन भदन्त! भंते! काय-समाधारणा-संयम-योगों में काय को
भलीभांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है? कायसमाधारणेन चरित्र- काय-समाधारणा से वह चरित्र-पर्यवों--चरित्र पर्यवान् विशोधयति, विशोध्य के विविध आयामों को विशुद्ध करता है। चरित्र-पर्यवों यथाख्यातचरित्रं विशोधयति, को विशुद्ध कर यथाख्यात चरित्र (वीतरागभाव) को विशोध्य चतुरः केवलिकर्माशान् प्राप्त करने योग्य विशुद्धि करता है। यथाख्यात क्षपयति। ततः पश्चात् सिध्यति, चरित्र को विशुद्ध कर केवलि-सत्क (केवली के 'बुज्झइ' मुच्यते, परिनिर्वाति, विद्यमान) चार कर्मों--वेदनीय, आयुष्य, नाम और सर्वदुःखानामन्तं करोति।। गोत्र को क्षीण करता है। उसके पश्चात् सिद्ध होता
है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है।६६
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