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टिप्पण
अध्ययन २८ : मोक्ष-मार्ग-गति
१. चार कारणों से संयुक्त (चउकारणसंजुत्तं...)
इसी ग्रन्थ (३३।४) में ज्ञानावरण के भेदों में इन पांच ज्ञानों का मोक्षगति के चार कारण हैं। वे अगले श्लोक में प्रतिपादित उल्लेख हुआ है। वहां भी यही क्रम है। साधारणतः ज्ञान के हैं। मोक्षमार्ग की गति उन चार कारणों से संयुक्त होती है। उल्लेख का क्रम है-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और ज्ञान और दर्शन उनके लक्षण बतलाए गए हैं। ज्ञान और दर्शन केवल। परन्तु इस श्लोक में श्रूत के बाद आभिनिबोधिक का कारण के रूप में प्रतिपादन है फिर लक्षण के रूप में (मति) का उल्लेख हुआ है। टीकाकारों ने इसका कारण उनका प्रतिपादन क्यों ? इसका समाधान यह है कि साधना-काल बतलाते हुए कहा है कि शेष सभी ज्ञानों (मति, अवधि, में ज्ञान और दर्शन मोक्ष के साधन हैं। सिद्धि-अवस्था में वे
मनःपर्यव और केवल) का स्वरूप-ज्ञान इस श्रुतज्ञान से ही आत्मा के स्वरूप हैं। चार कारणों में उनका साधन के रूप में होता है। अतः इसकी प्रधानता दिखाने के लिए ऐसा किया उल्लेख है। लक्षण में उनका आत्म-स्वरूप विषयक उल्लेख है। गया है। इसकी पुष्टि अनुयोगद्वार सूत्र से भी होती है। यह
भी सम्भव है कि छन्द की दृष्टि से ऐसा किया गया हो। २. (श्लोक २)
इन्द्रियां योग्य देश में अवस्थित वस्तु को ही जान सकती इस श्लोक में मोक्ष के चार मार्ग—(१) ज्ञान, (२) दर्शन,
हैं, इसका बोध 'अभि' के द्वारा होता है। वे अपने-अपने (३) चारित्र और (४) तप-का नाम-निर्देश है। 'तप' चारित्र
निश्चित विषय को ही जान सकती हैं, इसका बोध 'नि' के का ही एक प्रकार है किन्तु इसमें कर्म-क्षय करने को विशिष्ट
द्वारा होता है। जिस ज्ञान के द्वारा योग्य देश में अवस्थित वस्तु शक्ति होने के कारण इसे यहां स्वतंत्र स्थान दिया गया है।'
का ज्ञान और निश्चित विषय का बोध होता है, वह आभिनिबोधिक उमास्वाति ने “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"२-इस सूत्र ।
२सन ज्ञान है। में तपस्या को स्वतंत्र स्थान नहीं दिया है। इस प्रकार मोक्ष-मार्ग
'आभिनिबोधिकज्ञान' मतिज्ञान का ही पर्यायवाची है। की संख्या के सम्बन्ध में दो परस्पराएं प्राप्त है। इनमें केवल नन्दी सत्र में दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। अनयोगद्वार में अपेक्षा-भेद है। तप को चारित्र के अन्तर्गत मान लेने पर मोक्ष केवल 'आभिनिबोधिक' का ही प्रयोग है। नंदी में ईहा, उपोह, के मार्ग तीन बन जाते हैं और इसे स्वतंत्र मान लेने पर चार विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा को
बौद्ध-साहित्य में अष्टांगिक मार्ग को मुक्ति का कारण आभिनिबोधिक ज्ञान माना है। तत्त्वार्थ (१।१३) में मति, माना गया है। (१) सम्यक् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और आभिनिबोध को एकार्थक माना सम्यक् वचन, (४) सम्यक् कर्मान्त, (५) सम्यक् आजीव, (६) गया है। सम्यक् व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति और (८) सम्यक् समाधि मति और श्रुत अन्योन्याश्रित हैं—'जत्थाभिणिबोहियनाण -ये अष्टांगिक-मार्ग कहलाते हैं।
तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थाभिणिबोहियनाणं'-जहां मति ३. (श्लोक ४)
है, वहां श्रुत है और जहां श्रुत है, वहां मति है। इस श्लोक में जैनदर्शनाभिमत पांच ज्ञानों—(१) श्रुतज्ञान, श्रुतज्ञान मति-पूर्वक ही होता है, परन्तु मतिज्ञान श्रुत-पूर्वक (२) आभिनिबोधिकज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःज्ञान नहीं होता। सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में भी इसी मत का (मनःपर्यवज्ञान) और (५) केवलज्ञान का उल्लेख हुआ है। समर्थन है।" श्रुतज्ञान मति-पूर्वक ही होता है, जबकि मतिज्ञान
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५६ : इह च चारित्रभेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादानमस्यैव
क्षपणं प्रत्यसाधारणहेतुत्वमुपदर्शयितुं, तथा च वक्ष्यति-'तवसा (उ)
विसुज्झइ'। २. तत्त्वार्थ सूत्र, ११। ३. संयुत्तनिकाय (३४।३।५।१), भाग २, पृ० ५०५। । ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५५७ ।
(ख) सुखबोधा, पत्र ३१६। अणुओगदाराई, सूत्र २: तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाई ठवणिज्जाई- नो उद्दिसंति, नो समुद्दिसंति, नो अणुण्णविज्जति, सुयनाणस्स उद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ।
६. बृहवृत्ति, पत्र ५५६ : तथाभिमुखो योग्यदेशावस्थितवस्त्वपेक्षया नियतः
स्वस्वविषयपरिच्छेदकतयाऽवबोधः-अवगमो ऽभिनिबोधः, स एवाभिनि
बोधिकम्। ७. नन्दी, सूत्र ३५, ३६॥ ८. वही, सूत्र ५४, गाथा ६ :
ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवसणा।
सण्णा सई मई पण्णा, सच आभिणिबोहियं ।। ६. वही, सूत्र ३५। १०. वही, सूत्र ३५। ११. सर्वार्थसिद्धि, १९३० : तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १६।
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