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मोक्ष-मार्ग-गति
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अध्ययन २८ : श्लोक २०-३१ टि० २१-२५
हुआ, साक्षात् किया हुआ और दूसरे का अर्थ होगा-अर्हत् मानकर व्याख्या की है। उसके आधार पर उत्तरवर्ती दो चरणों द्वारा उपदिष्ट।
का अनुवाद इस प्रकार होगा-सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् २१. (रागो.....)
(एक साथ) उत्पन्न होते हैं और जहां वे युगपत् उत्पन्न नहीं राग, द्वेष, मोह और अज्ञान-यह चतुष्क आज्ञारुचि होते, वहां पहले सम्यक्त्व होता है। का बाधक है। यहां मोह का अर्थ मूर्छा या मूढ़ता है। राग, सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् एक साथ कैसे होते द्वेष और मोह–इन तीनों का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। हैं-इस प्रश्न पर जयाचार्य ने विमर्श किया है। उसका सार इस चतुष्क का उल्लेख ३२२ में भी हुआ है।
यह है कोई मुनि छठे गुणस्थान में विद्यमान है। वह किसी २२. वीतराग की आज्ञा (आणाए)
तत्त्व के विषय में संशयशील हो गया। उस संशयशीलता के इसके संस्कृत रूप तीन हो सकते हैं—आज्ञाय, आज्ञायां
कारण उसका सम्यक्त्व और चारित्र—दोनों नष्ट हो गए। वह और आज्ञया । वृत्तिकार ने 'आज्ञया' रूप मानकर इसका अर्थ
प्रथम गुणस्थान में चला गया। अंतर्मुहूर्त में उसके संशय का आचार्य आदि की आज्ञा से किया है।'
निवारण हो गया। वह फिर सम्यक्त्व और चारित्र-युक्त हो - स्थानांग में सरागसम्यग्दर्शन के दस प्रकारों से इन्हीं दस गया। व्याख्या का यह एक नय है। इस नय की अपेक्षा रुचियों का उल्लेख है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने आज्ञारुचि
सम्यक्त्व और चारित्र के युगपत् उत्पाद अथवा सहभाव को को 'आज्ञाया रुचिः' ऐसा मानकर आज्ञा का अर्थ सर्वज्ञ का
समझा जा सकता है। वचन किया है तथा तात्पर्यार्थ में आचार्य आदि की आज्ञा को २५. (श्लोक ३१) आज्ञा का वाचक माना है।
सम्यग्-दर्शन का अर्थ है-सत्य की आस्था, सत्य की हमने इसका संस्कृतरूप 'आज्ञायां' मानकर इसका अर्थ रुचि। वह दो प्रकार का होता है—(१) नैश्चयिक और (२) वीतराग की आज्ञा में किया है। यहां आज्ञा का अर्थ आदेश-निर्देश व्यावहारिक। नैश्चयिक-सम्यग्-दर्शन का सम्बन्ध केवल आत्मा नहीं है। उसका अर्थ आगम अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा दृष्ट की आंतरिक शुद्धि या सत्य की आस्था से होता है। अतीन्द्रिय विषयों का प्रतिपादन है। आज्ञा विचय में आज्ञा का व्यावहारिक-सम्यग-दर्शन का संबन्ध संघ, गण और संप्रदाय जो अर्थ है, वही यहां प्रासंगिक है।
से भी होता है। २३. (श्लोक २७)
___ सम्यग्-दर्शन के आठ अंगों का निरूपण इन दोनों प्रस्तत श्लोक में तीन पदों के साथ धर्म शब्द का प्रयोग दृष्टियों को सामने रख कर किया गया है। सम्यग-दर्शन के आठ किया गया है। अस्तिकाय पांच हैं-धर्मास्किाय, अधर्मास्तिकाय, अग य है-(१) निःशकित, (२) निष्काक्षित, (३) निविचिकित्सा आकाशास्किाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। अस्तिकाय (४) अमूढदृष्टि, (५) उपबृंहण, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य के साथ धर्म शब्द का प्रयोग स्वभाव अर्थ में किया गया है। जार (८) अभावमा श्रुत और चारित्र-ये दोनों धर्म साधना के लिए निरूपित हैं। सम्यग-दशन के पाच तिचार ह—(१) शका, (२) कांक्षा २४. (श्लोक २९)
(३) विचिकित्सा, (४) पर-पाषण्ड-प्रशंसा और (५) पर-पाषण्डसम्यक्त्वविहीन चारित्र नहीं होता, यह नियम है। सम्यक्त्व
संस्तव। के साथ चारित्र हो ही, यह नियम नहीं है। इन दो नियमों के
___आचार का उल्लंघन अतिचार होता है और 'अतिचार' आधार पर दो विकल्प बनते हैं। पहले दो चरणों के नियम का
का वर्जन आचार। आचार के आठ अंग हैं और अतिचार के निर्देश है। उत्तरवर्ती दो चरणों में दो विकल्पों का निर्देश है।
पांच। इस संख्या-भेद पर सहज ही प्रश्न होता है। पहला विकल्प-सम्यक्त्व और चारित्र का सहभाव होता है।
श्रुतसागरसूरि ने इसका समाधान किया है। उनके अनुसार दूसरा विकल्प' –जहां दोनों का सहभाव न हो वहां पहले
व्रत और शीलों के पांच-पांच अतिचार बतलाए हैं। अतः सम्यक्त्व होता है। वृत्तिकार ने 'उत्पद्यते' इस क्रिया को शेष
अतिचारों के वर्णन में सम्यग्-दर्शन के पांच ही अतिचार बतलाए गए हैं। शेष तीन अतिचारों का मिथ्यादृष्टि-प्रशंसा
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६४ : आज्ञयैव आचार्यादिसम्बन्धिन्या...। २. ठाणं १०।१०४, वृत्ति पत्र ४७७ : आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तया
रुचिर्यस्य स तथा, यो हि प्रतनुरागद्वेषमिथ्याज्ञानतयाऽऽचार्यादीनामाज्ञयैव । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६६ : सम्यक्त्वचारित्रे 'युगपत्' एककालमुत्पद्यते इति
शेषः। ...पूर्व चारित्रोत्पादात् सम्यक्त्वमुत्पद्यते ततो यदा युगपदुत्पादस्तदा तयोः सहभावः।
४. उत्तराध्ययन की जोड़, २६२६ का वार्तिक
इहां कह्यो, पहिला सम्यक्त्व आवै अने पछै चारित्र पावै एतो प्रत्यक्ष दीसेज छै। पिण सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै करो ते किम । तेहनों उत्तर। एक मुनि छठे गुणठाणे हुँतो। तिणनै किणही बोलनी शंका पडी। तिवारे समकित चारित्र दोनूं ही गया। पहिले गुणठाणे आयो। पछै अन्तर्मुहर्त में शंका मिट्यां पाछो छठे गुणाठाणे आयां सम्यक्त्व चारित्र सहित थयो। इम सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै। एहवू न्याय संभवै।
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