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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २६ : आमुख
(१) जन्म-परम्परा का अल्पीकरण। (सू० ४१) सद्भावना-प्रत्याख्यान--पूर्ण संवर के परिणाम : (१) अनिवृत्ति-मन-वचन और काया की प्रवृत्ति
का सर्वथा और सर्वदा अभाव। (२) अघाति-कर्म का विलय।
(३) सर्व दुःख-मुक्ति। (सू० ४२) प्रतिरूपता--अचेलकता के परिणाम :
(१) लाघव। (२) अप्रमाद। (३) प्रकट लिंग होना। (४) प्रशस्त लिंग होना। (५) विशुद्ध सम्यक्त्व। (६) सत्त्व और समिति को प्राप्त करना। (७) सर्वत्र विश्वसनीय होना। (८) अप्रतिलेखना। (६) जितेन्द्रियता। (१०) विपुल तप सहित होना–परीषह-सहिष्णु होना।
(सू० ४३) वैयावृत्त्य का परिणाम : (१) धर्म-शासन के सर्वोच्च पद तीर्थंकरत्व की प्राप्ति।
(सू० ४४) सर्व-गुण सम्पन्नता के परिणाम :
(१) अपुनरावृत्ति-मोक्ष की प्राप्ति। (२) शारीरिक और मानसिक दुःखों से पूर्ण मुक्ति।
(सू० ४५) वीतरागता के परिणाम :
(१) स्नेह और तृष्णा के बन्धन का विच्छेद। (२) प्रिय शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों में विरक्ति।
(सू० ४६) क्षांति-सहिष्णुता का परिणाम :
(१) परीषह-विजय। (सू० ४७) मुक्ति के परिणाम :
(१) आकिंचन्य। (२) अर्थ-लुब्ध व्यक्तियों के द्वारा अस्पृहणीयता।
(सू०४८) ऋजुता के परिणाम :
(१) काया की सरलता। (२) भावों की सरलता। (३) भाषा की सरलता।
(४) अविसंवादन–अवंचना-वृत्ति। (सू० ४६) मृदुता के परिणाम :
(१) अनुद्धत मनोभाव।
(२) आठ मद-स्थानों पर विजय। (सू० ५०) भाव-सत्य के परिणाम :
(१) भाव-विशुद्धि। (२) अर्हद्-धर्म की आराधना।
(३) परलोक धर्म की आराधना। (सू०५१) करण-सत्य के परिणाम :
(१) कार्यजा-शक्ति की प्राप्ति। (२) कथनी और करनी का सामंजस्य। (सू० ५२) योग-सत्य का परिणाम : (१) मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति की
_ विशुद्धि। (सू० ५३) मनो-गुप्ति के परिणाम :
(१) एकाग्रता।
(२) संयम की आराधना। (सू० ५४) वचन-गुप्ति के परिणाम :
(१) विकार-शून्यता या विचार-शून्यता। (२) अध्यात्म-योग और ध्यान की प्राप्ति। (सू०५५) काय-गुप्ति के परिणाम :
(१) संवर
(२) पापाश्रव का निरोध । (सू० ५६) मन-समाधारणा के परिणाम :
(१) एकाग्रता। (२) ज्ञान की विशिष्ट क्षमता। (३) सम्यक्त्व की विशुद्धि और मिथ्यात्व का क्षय।
(सू०५७) वचन-समाधारणा के परिणाम :
(१) वाचिक सम्यग-दर्शन की विशुद्धि। (२) सुलभ-बोधिता की प्राप्ति और दुर्लभ-बोधिता
का क्षय। (सू० ५८) काय-समाधारणा के परिणाम :
(१) चारित्र-विशुद्धि। (२) वीतराग-चारित्र की प्राप्ति। (३) भवोपग्राही कर्मों का क्षय।
(४) सर्व-दुःखों से मुक्ति। (सू० ५६) ज्ञान-सम्पन्नता के परिणाम :
(१) पदार्थ-बोध। (२) पारगामिता। (३) विशिष्ट विनय आदि की प्राप्ति।
(४) प्रामाणिकता। (सू० ६०) दर्शन-सम्पन्नता के परिणाम :
(१) भव-मिथ्यात्व का छेदन। (२) सतत प्रकाश। (३) ज्ञान और दर्शन की उत्तरोत्तर विशुद्धि। (सू०६१) चारित्र-सम्पन्नता के परिणाम :
(१) अप्रकम्प-दशा की प्राप्ति। (२) भवोपग्राही कर्मों का विलय।
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