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उत्तरज्झयणाणि
(२) अनुत्तर धर्म - श्रद्धा से तीव्र संवेग की प्राप्ति । (३) तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय ।
(४) मिथ्यात्व - कर्म का अपुनर्बन्ध ।
(५) मिथ्यात्व - विशुद्धि ।
(६) उसी जन्म में या तीसरे जन्म में मुक्ति । (सू० २) निर्वेद के परिणाम :
(१) काम भोगों के प्रति अनासक्त-भाव ।
(२) इन्द्रियों के विषयों में विरक्ति ।
(३) आरम्भ - परित्याग ।
(४) संसार मार्ग का विच्छेद और मोक्ष मार्ग का स्वीकरण (सू० ३)
धर्म- श्रद्धा के परिणाम :
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(१) सुख-सुविधा के प्रति विरक्ति ।
(२) अनगार - धर्म का स्वीकरण ।
(३) छेदन - भेदन आदि शारीरिक और संयोग-वियोग आदि मानसिक दुःखों का उच्छेद ।
(४) निर्बाध सुख की प्राप्ति (सू० ४)
गुरु और साधर्मिकों की सेवा के परिणाम :
(१) विनय - प्रतिपत्ति-आवश्यक कर्त्तव्यों का पालन । (२) अनाशातनशीलता — गुरुजनों की अवज्ञा आदि से दूर रहने की मनोवृत्ति । (३) दुर्गति का निरोध ।
(४) गुण-ग्राहिता, गुण-प्रकाशन, भक्ति और बहुमान की मनोवृत्ति का विकास।
(५) सुगति की ओर प्रयाण ।
(६) विनय - हेतुक ज्ञान आदि की प्राप्ति ।
(७) दूसरों को सेवा-धर्म में प्रवृत्त करना। (सू० ५) आलोचना के परिणाम :
(१) आन्तरिक शल्यों की चिकित्सा ।
(२) सरल मनोभाव की विशेष उपलब्धि ।
(३) तीव्रतर विकारों से दूर रहने की क्षमता और पूर्व-संचित विकार के संस्कारों का विलय । (सू० ६)
आत्म-निन्दा के परिणाम :
(१) पश्चात्ताप - पूर्ण मनोभाव ।
(२) अभूतपूर्व विशुद्धि की परिणाम-धारा का
प्रादुर्भाव
(३) मोह का विलय (सू० ७)
आत्म-गर्हा के परिणाम :
(१) अपने लिए अवज्ञा पूर्ण वातावरण का निर्माण । (२) अप्रशस्त आचरण से निवृत्ति ।
(३) ज्ञान आदि के आवरण का विलय । (सू०८) सामायिक का परिणाम :
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अध्ययन २६ : आमुख
(१) विषमता - पूर्ण मनोभाव (सावद्य प्रवृत्ति) की विरति । ( सू० ६) चतुर्विंशतिस्तव का परिणाम :
(१) दर्शन की विशुद्धि । (सू० १०)
वन्दना के परिणाम :
(१) नीच गोत्र - कर्म का क्षय और उच्च गोत्र-कर्म का अर्जन ।
(२) सौभाग्य लोक-प्रियता ।
(३) अनुल्लंघनीय आज्ञा की प्राप्ति ।
(४) अनुकूल परिस्थिति (सू० ११) प्रतिक्रमण के परिणाम :
(१) व्रत में होने वाले छेदों का निरोध ।
(२) चारित्र के धब्बों का परिमार्जन ।
(३) आठ प्रवचन - माताओं के प्रति जागरूकता ।
(४) अपृथक्त्व - संयमलीनता ।
(५) मानसिक निर्मलता । ( सू० १२ ) कायोत्सर्ग के परिणाम :
(१) अतिचार का विशोधन ।
( २ ) हृदय की स्वस्थता और भार हीनता । (३) प्रशस्त - ध्यान की उपलब्धि । (सू० १३) प्रत्याख्यान का परिणाम :
(१) आश्रव निरोध ( सू० १४ )
स्तव स्तुति-मंगल के परिणाम : (१) बोधि-लाभ ।
(२) अन्त-क्रिया— मुक्ति ।
(३) स्वर्ग - गमन । ( सू० १५) काल-प्रतिलेखना का परिणाम :
(१) ज्ञानावरण कर्म का विलय । (सू० १६ ) प्रायश्चित्तकरण के परिणाम :
(१) पाप कर्म का विशोधन ।
(२) दोष - विशुद्धि ।
(३) मार्ग और मार्ग फल-ज्ञान की प्राप्ति । (४) आचार और आचार-फल- आत्म-स्वतंत्रता की आराधना । (सू० १६ ) क्षमा-याचना के परिणाम :
(१) आह्लाद - पूर्ण मनोभाव । (२) सबके प्रति मैत्रीभाव । (३) मन की निर्मलता ।
(४) अभय। (सू० १८) स्वाध्याय का परिणाम :
(१) ज्ञानावरण कर्म का विलय । ( सू० १६ ) वाचना-अध्यापन के परिणाम :
(१) निर्जरा - संस्कार-क्षय ।
(२) श्रुत की अनाशातना - ज्ञान का विनय ।
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