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उत्तरज्झयणाणि
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__ अध्ययन २८ : श्लोक ३१ टि० २५
और मिथ्यादृष्टि-संस्तव में अन्तर्भाव हो जाता है। जो विजयोदया के अनुसार भोग और सुख-संपदा की जो मिथ्या-दृष्टियों की प्रशंसा और स्तुति करता है, वह मूढ़-दृष्टि इच्छा है, वह सम्यग-दर्शन का अतिचार नहीं है किंतु दर्शन, तो है ही। वह उपबृंहण नहीं करता, स्थिरीकरण नहीं करता। व्रत आदि के द्वारा भोग-प्राप्ति की इच्छा करना अतिचार है।' उससे वात्सल्य और प्रभावना भी संभव नहीं है।' इस भावना निष्कांक्षित सम्यग-दर्शन का आचार है। के अनुसार सम्यग्-दर्शन के आठ आचारात्मक और आठ (३) निर्विचिकित्सा और विचिकित्सा अतिचारात्मक अंग होते हैं
विचिकित्सा के भी दो अर्थ मिलते हैं—(१) धर्म के फल (१) नि:शंकित और शंका
में संदेह' और (२) जुगुप्सा—घृणा।। शंका का अर्थ सन्देह भी होता है और भय भी। इन आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार भूख-प्यास, शीत-उष्ण दोनों अर्थों के आधार पर इसकी व्याख्या हुई है। शान्त्याचार्य, आदि नाना प्रकार के भावों तथा मल आदि पदार्थों में घृणा हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि, हेमचन्द्राचार्य, नेमिचंद्राचार्य, स्वामी नहीं करनी चाहिए। समंतभद्र और शिवकोट्याचार्य ने शंका का अर्थ 'सन्देह' किया स्वामी समंतभद्र के शब्दों में स्वभावतः अपवित्र किन्तु है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शंका का अर्थ 'भय' किया है। रत्नत्रयी से पवित्र शरीर में ग्लानि न करना, गुणों में प्रीति श्रुतसागरसूरि ने दोनों अर्थ किये हैं। संक्षेप में
करने का नाम निर्विचिकित्सा है।" (१) जिन भाषित-तत्त्व के प्रति जो सन्देह होता है, वह अमितगति श्रावकाचार में तीसरा अतिचार निन्दा है। शंका है।
हेमचन्द्राचार्य ने भी विचिकित्सा का वैकल्पिक अर्थ 'निन्दा' (२) जिसका मन सात प्रकार के भयों से व्यथित होता किया है।३ है, वह शंका है। यह सम्यग्-दर्शन का अतिचार है। निश्शंकित (४) अमूढ़-दृष्टि और पर-पाषण्ड-प्रशंसा, पर-पाषण्डसम्यग-दर्शन का आचार है। सम्यग-दृष्टि को असंदिग्ध और संस्तवअभय होना चाहिए।
मूढ़ता का अर्थ है—मोहमयी दृष्टि। स्वामी समन्तभद्र ने (२) निष्कांक्षित और कांक्षा
उसे तीन भागों में विभक्त किया हैकांक्षा के दो अर्थ मिलते हैं—(१) एकांत-दृष्टि वाले
(१) लोक-मूढ़ता-नदी-स्नान आदि में धार्मिक विश्वास। दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा' और (२) धर्माचरण के
(२) देव-मूढ़ता--राग-द्वेष-वशीभूत देवों की उपासना । द्वारा सुख-समृद्धि पाने की इच्छा ।।
(३) पाषण्ड-मूढ़ता–हिंसा में प्रवृत्त साधुओं का पुरस्कार।" १. तत्त्वार्थ, ७।२३, श्रुतसागरीय वृत्ति, पृ० २४८ ।
स्त्रीपुत्रादिक, शत्रुमर्दन, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ : शड्कनं शड़िकतं-देशसर्वशकात्मक गृहीता, एषा अतिचारो दर्शनस्य। तस्याभावो निःशकितम्।
८. प्रवचनसारोद्धार, २६८, पत्र ६४ : बिचिकित्सा-मतिविभ्रमः (ख) श्रावकधर्मप्रकरण, वृत्ति पत्र २० : भगवदर्हत्प्रणीतेषु धर्माधर्मा- युक्त्यागमोपपन्ने ऽप्यथें फलं प्रति सम्मोहः ।
काशादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिमान्द्यादिभ्योऽनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः बही, २६८, पत्र ६४ : यद्वा विद्वज्जुगुप्सा-मलमलिना एते किमेवं स्यात् ? नैवम् इति।
इत्यादिसाधुजुगुप्सा। (ग) ठाणं, ३।५२३ वृत्ति पत्र १६६ : शकितो--देशतः सर्वतो वा १०. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २५ : संशयवान्
क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु। (घ) योगशास्त्र, २।१७।
द्रव्येषु पुरीषादिषु, विचिकित्सा नैव करणीया।। (ङ) प्रवचनसारोद्धार, पत्र ६६
११. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १।१३ : (च) रत्नकरंडक श्रावकाचार, १११
स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। (छ) मूलाराधना, ११४४ विजयोदया : शंका--संशयप्रत्ययः किंस्विदित्य- द्रव्येषु पुरीषादिषु, विचिकित्सा नैव करणीया।। नवधारणात्मकः।
१२. अमितगति श्रावकाचार, ७।१६ : ३. समयसार, गाथा २२८ :
शंका कांक्षा निंदा, परशंसासंस्तवा मला पंच। सम्मदिट्टी जीवा, णिस्संका होति णिटभया तेण।
परिहर्तव्याः सदभिः, सम्यक्त्वविशोधिभिः सततम् ।। सत्तभयविष्णमुक्का, जम्हा तम्हा हु णिस्संका।।
१३. योगशास्त्र २१७ वृत्ति पत्र ६७: यद्वा विचिकित्सा निंदा सा च ४. तत्त्वार्थ, ७।२३, वृत्ति : तत्र शंका-यथा निर्ग्रन्थानां मुक्तिरुक्ता तथा सदाचारमुनिविषया यथा अस्नानेन प्रस्वेदजलक्लिन्नमलत्वाद् दुर्गन्धिवपुष
सग्रन्थानामपि गृहस्थादीनां किं मुक्तिर्भवति इति शंका । अथवा, भयप्रकृतिः एत इति। शंका
१४. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ११२२,२३,२४ : पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २४ :
आपगासामरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । इह जन्मनि विभवादीन्थमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् ।
गिरिपातोऽग्निपातश्च, लोकमूढं निगद्यते।। एकांतवाददृषितपरसमयानपि च नाकांक्षेत्।।
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसा। ६. तत्त्वार्थ, ७२३, वृत्ति : इहपरलोकभोगाकांक्षणं कांक्षा।
देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते।।। मूलाराधना, ११४४ विजयोदया : न कांक्षामात्रमतीचारः किंतु दर्शनाद् सग्रन्थारम्भहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम्। व्रताद्दानाद्देवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेद कुलं, रूप, वित्तं, पाषाण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम्।'
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