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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २८ : श्लोक ३२, ३३ टि० २६
आचार्य हरिभद्र ने सिद्ध के स्थान में अतिशय- सर्व सावद्य प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है, वह सामायिक ऋद्धि-सम्पन्न और कवि के स्थान में राजाओं द्वारा सम्मत चारित्र है। छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र इसी के विशेष रूप व्यक्ति को प्रभावक माना है।'
हैं। बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र का उपदेश दिया था। सम्यक्त्व के पांच भूषण माने जाते हैं---(१) स्थैर्य, छेदोपस्थापनीय का उपदेश भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर (२) प्रभावना, (३) भक्ति, (४) जिन-शासन में कौशल और ने दिया था। (५) तीर्थ-सेवा।
सामायिक-चारित्र दो प्रकार का होता है---- स्थैर्य, प्रभावना और भक्ति क्रमशः स्थिरीकरण, प्रभावना (क) इत्वर-भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर के और वात्सल्य हैं। जिन-शासन में कौशल और तीर्थ-सेवा भी शिष्यों के यह इत्वर---अल्पकाल के लिए होता है। इसकी वात्सल्य के विविध रूपों का स्पर्श करते हैं।
स्थिति सात दिन, चार मास या छह मास है। तत्पश्चात् इसके सम्यग्-दर्शन के आठों अंग सत्य की आस्था के परम स्थान पर छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार किया जाता है। अंग हैं। कोई भी व्यक्ति शंका (भय या संदेह), कांक्षा (आसक्ति (२) यावत्कथिक शेष वाईस तीर्थंकरों के शिष्यों के या वैचारिक अस्थिरता), विचिकित्सा (घृणा या निन्दा), मूढ़-दृष्टि सामायिक-चारित्र यावज्जीवन के लिए होता है। (अपनी नीति के विरोधी विचारों के प्रति सहमति) से मुक्त हुए श्रुतसागरसूरि ने तत्त्वार्थ वृत्ति में सामायिक के दो बिना सत्य की आराधना कर नहीं सकता और उसके प्रति भेद-परिमित-काल और अपरिमित-काल--किए हैं। स्वाध्याय
आस्थावान रह नहीं सकता। स्व-सम्मत धर्म या साधर्मिकों का आदि के समय जो सामायिक किया जाता है, वह उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना किए बिना कोई परिमित-काल-सामायिक होता है। ईर्यापथ आदि में व्यक्ति सत्य की आराधना करने में दूसरों का सहायक नहीं अपरिमित-काल-सामायिक होता है। बन सकता। इस दृष्टि से ये आठों अंग बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। पूर्व पर्याय (सामायिक-चारित्र) का छेद कर महाव्रतों में २६. (श्लोक ३२-३३)
उपस्थित करने को 'छेदोपस्थापनीय' कहा जाता है। जिससे कर्म का चय रिक्त होता है, वह चारित्र है। यह सामायिक-चारित्र स्वीकार करते समय सर्व सावध योग का 'चारित्र' शब्द का निरुक्त है। ३५ वें श्लोक में बताया गया त्याग किया जाता है, सावध योग का विभागशः त्याग नहीं है-चारित्र से निग्रह होता है। रिक्त करना और निग्रह करना किया जाता। छेदोपस्थापनीय में विभागशः त्याग किया जाता वस्तुतः एक नहीं है। प्रश्न होता है यह भेद क्यों ?
है। पांच महाव्रतों का पृथक्-पृथक् त्याग किया जाता है, शान्त्याचार्य ने इसके समाधान में लिखा है—तपस्या भी इसलिए आचार्य वीरनन्दि ने छेद का अर्थ भेद या विभाग किया चारित्र के अन्तर्गत है, इसलिए चारित्र के दो कार्य होते हैं- है। पूज्यपाद के अनुसार तीन गुप्ति (मनो-वाक्-काय), पांच (१) कर्म का निग्रह और (२) कर्म-चय का रिक्तीकरण । समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग) तथा (१) सामायिक और (२) छेदोपस्थापनीय
पांच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह)चारित्र के पांच प्रकार बतलाए गए हैं.–सामायिक, इन तेरह भेद वाले चारित्र का निरूपण भगवान् महावीर ने छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात। किया था। उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने ऐसे विभागात्मक चारित्र वस्तुतः वह एक ही है। ये भेद विशेष दृष्टियों से किए गए हैं। का निरूपण नहीं किया था। १. श्रावकधर्मविधि प्रकरण, श्लोक ६७ :
भरतैरावतयोः प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोरुपस्थापनायां छेदोपस्थापनीयअइसेसइहि धम्मकहिवाइआयरियखवगनेमित्ती।
चारित्रभावेन तत्र तद्वयपदेशाभावात, यावत्कथिकं च तयोरेव विज्जारायागणसम्मया य तित्थं पभावेति ।।
मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु महाविदेहेषु चोपस्थापनाया अभावेन तद्वयपदेशस्य योगशास्त्र, २१६ :
यावज्जीवमपि सम्भवात् । स्थैर्य प्रभावना भक्तिः कौशलं जिनशासने।
७. तत्त्वार्थ, १८ वृति : तत्र सामायिकं द्विप्रकारम् परिमितकालमपरिमिततीर्थसेवा च पंचास्य, भूषणानि प्रचक्षते ।।
कालञ्चेति । स्वाध्यायादौ सामयिकग्रहणं परिमितकालम् । ईर्यापथादाववृहद्वृत्ति, पत्र ५६६ : 'एतद्' अनन्तरोक्तं सामायिकादि चयस्य--- परिमितकालं वेदितव्यम्। राशेः प्रस्तावात्कर्मणां रिक्त--विरेको ऽभाव इति यावत् तत्करोतीत्येवंशीलं .. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६८। चयरिक्तकर चारित्रमिति नैरुक्तो विधिः आह-वक्ष्यति-"चरिनेण ६. आचारसार,५६-७: णिगिण्हाति तवेण य वि (परि) सुज्झति त्ति" कथं न तेनास्य विरोधः ?, व्रत-समिति-गुप्तिर्गः, पंच पंच त्रिभिर्मतैः । उच्यते, तपसोऽपि तत्त्वतश्चारित्रान्तर्गतत्वात्।
छेदैर्भदैरुपेत्यार्थं, स्थापनं स्वस्थितिक्रिया।। ४. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६१८: सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया छेदोपस्थापनं प्रोक्तं, सर्वसावद्यवर्जने। एक व्रतं, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम्।
व्रतं हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मसंगेष्वसंगमः ।। ५. (क) मूलाचार, ७३६ :
१०. चारित्रभक्ति, श्लोक ७: बावीसं तित्थयरा, सामाइयं संजमं उबदिसंति।
तिम्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः। छेदोवट्ठावणियं पुण, भयवं उसहो य वीरो य।।
पंवेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि ।। (ख) आवश्यकनियुक्ति, १२४६ ।
चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दिष्टं परै६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६८ : एतच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तोवर राचार परमेष्टिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयम्।।
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