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मोक्ष-मार्ग-गति
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. अध्ययन २८ : श्लोक ३१ टि० २५
की
आचार्य हरिभद्र के अनुसार एकांतवादी तीर्थकों की आदि) की वृद्धि करना तथा पराए दोषों का निगूहन करनाविभूति देखकर जो मोह उत्पन्न होता है, उसे 'मूढ़ता' कहा ये दोनों उपबृंहण के अंग हैं। जाता है।' मिथ्या-दृष्टि की प्रशंसा और उसका संस्तव—ये (६) स्थिरीकरण दोनों मूढ़ता के ही परिणाम है।
धर्म-मार्ग या न्याय-मार्ग से विचलित हो रहे व्यक्तियों को स्वामी समंतभद्र ने मूढ़ता का अर्थ कुपथगामियों का पूनः उसी मार्ग में स्थिर करना यह 'स्थिरीकरण' है। सम्पर्क और उनकी स्तुति किया है।
(७) वात्सल्य मूलाराधना में 'पर-पाषण्ड-संस्तव' के स्थान पर
मोक्ष के कारणभूत धर्म, अहिंसा और साधर्मिकों में 'अनायतन-सेवा' का प्रयोग किया गया है। अनायतन के छह
वत्सल-भाव रखना, उनकी यथोयोग्य प्रतिपत्ति रखना, साधर्मिक प्रकार हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) मिथ्या-दृष्टि, (३) मिथ्या-ज्ञान,
साधुओं को आहार, वस्त्र आदि देना, गुरु, ग्लान, तपस्वी, (४) मिथ्या-ज्ञानी, (५) मिथ्या-चारित्र और (६) मिथ्या-चारित्र।
शैक्ष, पाहुने साधुओं की विशेष सेवा करना-यह वात्सल्य इनकी सेवा को 'अनायतन-सेवा' कहा जाता है। प्रवचन सारोद्धार में इसे 'परतीर्थिकोपसेवन' कहा है।"
(८) प्रभावना आचार्य हेमचन्द्र ने संस्तव का अर्थ परिचय किया है।'
तीर्थ की उन्नति हो वैसी चेष्टा करना, रत्नत्रयीपरिचय और सेवा ये लगभग समान हैं।
सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र से अपनी आत्मा को प्रभावित __ श्रुतसागरसूरि में संस्तव का अर्थ स्तुति किया है। उनके
करना, जिन-शासन की महिमा बढ़ाना—यह 'प्रभावना है।" अनुसार मानसिक श्लाघा-प्रशंसा और वाचिक श्लाघा----
आठ प्रकार के व्यक्ति प्रभावक माने जाते हैंसंस्तव है।
(१) प्रवचनी-द्वादशांगीधर, युगप्रधान आगम-पुरुष । (५) उपबृंहण
(२) धर्मकथी-धर्म-कथा-कुशल। सम्यग-दर्शन की पुष्टि करने को 'उपबृंहण' कहा जाता
(३) वादी वाद-विद्या में निपुण। है। वसुनन्दि ने 'उपबृंहण' के स्थान पर 'उपगृहन' माना है।
(४) नैमित्तिक-निमित्तविद् । उसका अर्थ है-प्रमादवश हुए दोषों का प्रचार न करना व
(५) तपस्वी तपस्या करने वाला। अपने गुणों का गोपन करना।
(६) विद्याधर-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं का पारगामी। आचार्य अमृतचन्द्र ने उपगूहन को उपबृंहण का ही एक
(७) सिद्ध-सिद्धिप्राप्त। प्रकार माना है। उनके अनुसार अपने आत्म-गुणों (मृदुता
(८) कवि-कवित्व-शक्ति-सम्पन्न १२ श्रावकधर्मविधि प्रकरण, ५८-६० :
६. तत्त्वार्थ वृत्ति (श्रुतसागरी), ७.२३ : मिथ्यादृष्टीनां मनसा ज्ञानचारित्रइडूढीओ णेगविहा, विज्जाजणिया तवोमयाओ य।
गुणोद्भावनं प्रशंसा, विद्यमानानामविद्यमानानां मिथ्यादृष्टिगुणानां वचनेन वेउव्वियलद्धिकया नहगमणाई य दटूटूणं।।
प्रकटनं संस्तव उच्यते। पूर्व च असणपाणाइवत्थपत्ताइएहिं विविहेहिं।
वसुनन्दि श्रावकाचार, ४८ : परपासंडत्थाणं सक्कोलूयाइणं दट्टणं ।।
णिस्संका णिक्कखा, णिविदिगिच्छा अमृढदिट्ठी य। धिज्जाईयगिहीणं, पासत्थाईण वापि दट्टणं ।
अवगृहण ठिदियरणं, बच्छल्ल पहावणा चेव ।' यस्सन मुज्झइ दिट्टी, अमृढदिट्टि तयं विति।।
८. पुरुषार्थसिन्ड्युपाय, २७ : रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ११४ :
धर्मो ऽभिवर्द्धनीयः, सदात्मनो मार्दवादिभावनया। कापथे पथि दुःखाना, कापथस्थेऽप्यसम्मतिः।
परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ।। असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढादृष्टिरुच्यते।।
६. (क) प्रवचनसारोद्धार, २६८ वृत्ति, पत्र ६४ : स्थिरीकरण तु धर्माद्विषीदता ३. मूलाराधना, १४४ :
तत्रैव चाटुवचनचातुर्यादवस्थापनम् । सम्मत्तादीचारा, संका कंखा तहेव विदिगिंछा।
(ख) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २८ । परदिट्ठीण पर्ससा, अणायदणसेवणा चेव।।
कामक्रोधमदादिषु, चलयितुमुदितेषु थर्मनो न्याय्यात्। विजयोदया
श्रुतमात्मनः परस्य च, युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।। अणायदणसेवणा चेव-अनायतनं षविधं-मिथ्यात्वं, मिथ्यादृष्टयः, (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ : वत्सलभावो वात्सल्यं-साधर्मिकजनस्य मिथ्याज्ञानं, तद्वन्तः, मिथ्याचारित्रं मिथ्याचारित्रवन्त इति। .
भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणम्। प्रवचनसारोद्धार, २७३ वृत्ति, पत्र ७० :
१०. बृहवृत्ति, पत्र ५६७: वत्सलभावो वात्सल्यं-साधर्मिकजनस्य भक्तपानासंका कंखा व तहा, वितिगिच्छा अन्नतित्थियपसंसा।
दिनोचित्तप्रतिपत्तिकरणम्। परितिथिओवसेवणमइयारा पंचे सम्मत्ते।।
११. वही, पत्र ५६७ : प्रभावना च-तथा तथा स्वतीर्थोन्नतिहेतुचेष्टासु 'परतीर्थिकोपसेवन'-परतीथिकैः सह एकत्र संवासात् परस्परा- प्रवर्तनात्मिका। लापादिजनितः परिचयः।
१२. योगशास्त्र, २१६ वृत्ति, पत्र ६५। ५. योगशास्त्र, २१७ वृत्ति ६७ : तैर्मिथ्यादृष्टिभिरेकत्र संवासात्परस्परा
लापादिजनितः परिचयः संस्तवः।
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