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मोक्ष-मार्ग-गति
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अध्ययन २८ :श्लोक १४ टि० १६
अजीव
पुण्य
पाप
बन्ध
धर्मास्तिकाय
अधर्मास्तिकाय
आकाशास्तिकाय
काल
पुद्गलास्तिकाय
पुण्य (शुभ कर्म)
पाप (अशुभ कर्म)
प्राणातिपात मृपावाद
अदत्तादान मैथुन परिग्रह क्रोध मान माया लोभ राग द्वेष कलह | अभ्याख्यान
पैशुन्य
पर-परिवाद
रति-अरति
माया-मृषा
मिथ्या-दर्शन-शल्य
आसव आसव-शुभ-अशुभ कर्म को ग्रहण करने वाला जीव करने वाला रस। ये आसव चार हैं-(१) काम-आसव, (२) का अध्यवसाय, परिणाम एवं प्रवृत्ति को 'आसव' कहा जाता भव-आसव, (३) दृष्टि-आसव और (४) अविद्या-आसव।
(१) काम-आसव-शब्दादि विषयों को प्राप्त करने की सांख्य-योग में वर्णित 'क्लेश' आनव के अति निकट
इच्छा-वासना या राग। है। महर्षि पतञ्जलि ने कहा है-'कर्म वासना का मूल क्लेश (२) भव-आसव-जीवन की अभिलाषा। है।" बौद्ध-दर्शन में अविद्या को अनादि दोष माना है। इस
दृष्टि-आसव–बौद्ध-दृष्टि से विपरीत दृष्टि का सेवन। अविद्या के जो निमित्त आत्म-परिणामों के प्रेरक बनते हैं, उन्हें
अविद्या-आसव-अनित्य पदार्थों में नित्यता की 'आसव' कहा जाता है। आसव का अर्थ है-मद उत्पन्न
बुद्धि ।
(४)
मा
आसव (१)
मिथ्यात्व
अव्रत
प्रमाद
कषाय
योग
मनोयोग
वचनयोग
काययोग
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
१. पातंजल योगदर्शन, २।१२ : क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।
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