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उत्तरज्झयणाणि
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होता है और वे शब्द रूप में परिणत होते हैं। परन्तु जब वे वाक् प्रयत्न द्वारा मुख से बोले जाते हैं तभी उन्हें 'शब्द' संज्ञा से व्यवहृत किया जाता है। जब तक उनका वचन योग के द्वारा विसर्जन नहीं हो जाता तब तक उन्हें शब्द नहीं कहा जाता।
शब्द के तीन प्रकार हैं- (१) जीव शब्द, (२) अजीव शब्द और (३) मिश्र शब्द । जीव शब्द आत्म-प्रयत्न का परिणाम है और वह भाषा या संकेतमय होता है। अजीव शब्द केवल अव्यक्त ध्वन्यात्मक होता है। मिश्र शब्द दोनों के संयोग से होता है। तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार शब्द के छह प्रकार हैं - ( १ ) तत, (२) वितत, (३) धन, (४) शुपिर, (५) संघर्ष और (६) भाषा ।' शब्द के दस प्रकार हैं – (१) निर्हारी, (२) पिंडिम, (३) रूक्ष, (४) भिन्न, (५) जर्जरित, (६) दीर्घ, (७) ह्रस्व, (८) पृथक्त्व (६) काकिणी और (१०) किंकिणीस्वर । शब्द जीव के द्वारा भी होता है और अजीव के द्वारा भी होता है। अजीव का शब्द अनक्षरात्मक ही होता है। जीव का शब्द साक्षर और निरक्षर दोनों प्रकार का होता है। इनके वर्गीकरण के लिए निम्न यंत्र देखिए
अक्षर सम्बद्ध
भाषात्मक
नो- अक्षर-सम्बद्ध
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घन
शुषिर
शब्द की उत्पत्ति पुद्गलों के संघात विघात और जीव के प्रयत्न- इन दोनों हेतुओं से होती है। इसलिए प्रकारांतर से इसके दो वर्ग बनते हैं – (१) वैनसिक और (२) प्रायोगिक । (१) वैनसिक — पुद्गलों के संघात विघात से होने वाला । (२) प्रायोगिक जीव के प्रयत्न से होने वाला ।
शब्द प्रसरणशील है। उससे दो व्यक्ति सम्बन्धित होते - वक्ता और श्रोता । इसलिए इन दोनों की मीमांसा आवश्यक होती है कि वक्ता कैसे बोलता है और श्रोता उसे कैसे सुनता है ? पुद्गलों की अनेक वर्गणाएं हैं। उसमें एक भाषा वर्गणा है । कोई भी प्राणी जय बोलने का प्रयत्न करता है, तब वह सबसे पहले भाषा वर्गणा के परमाणु- स्कंधों को ग्रहण करता है, उन्हें
9. तत्त्वार्थ सूत्र ५।२४, भाष्य पृ० ३५६ ।
२. ठाणं १०।२।
३. भगवई, १३।१२४ भासिज्जमाणी भासा ।
तत
अध्ययन २८ : श्लोक १२ टि० १३
भाषा के रूप में परिणत करता है और उसके पश्चात् उनका विसर्जन करता है। इस विसर्जन को 'भाषा' कहा जाता है।
शब्द गतिशील है, इसलिए वह वक्ता के मुंह से निकलते ही लोक में फैलने लगता है। वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है तो शब्द के परमाणु-स्कन्ध भिन्न होकर फैलते हैं और यदि उसका प्रयत्न मन्द होता है तो शब्द के परमाणु-स्कन्ध अभिन्न होकर फैलते हैं। जो भिन्न होकर फैलते हैं, वे सूक्ष्म हो जाते
हैं और दूसरे - दूसरे अनन्त परमाणु-स्कन्धों को प्रभावित कर लोकांत तक फैल जाते हैं। जो अभिन्न होकर फैलते हैं, वे असंख्य योजन तक पहुंच कर नष्ट हो जाते हैं---भाषा रूप से च्युत हो जाते हैं।
१३. अन्धकार ( अंधयार)
जैन- दृष्टि के अनुसार अन्धकार पुद्गल द्रव्य है, क्योंकि इसमें गुण है। जो-जो गुणवान् होता है वह वह द्रव्य होता है, जैसे आलोक आदि। वह प्रकाश की तरह भावात्मक द्रव्य है, अभावात्मक नहीं। जिस प्रकार प्रकाश का भास्वर रूप और ऊष्ण स्पर्श प्रसिद्ध है, उसी प्रकार अंधकार का कृष्ण रूप
शब्द
आतोद्य शब्द
वितत
घन
४.
५.
६.
नो भाषात्मक
भूषण - शब्द
शुषिर
और शीत स्पर्श प्रसिद्ध है। |
गणधर गौतम ने भगवान से पूछा – “भगवन् ! क्या दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ?"
-
भगवान् ने कहा – “हां गौतम ! दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ।"
“ऐसा क्यों होता है भगवन् ?” गौतम ने पूछा ।
भगवान् ने कहा - " गौतम ! दिन में शुभ-पुद्गल शुभ- पुद्गल परिणाम में परिणत होते हैं और रात्रि में अशुभ- पुद्गल अशुभ पुद्गल परिणाम में परिणत होते हैं। इसलिए दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ।६
अन्धकार पुद्गल का लक्षण है—कार्य है, इसलिए वह
पन्नवणा, पद ११।
न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ६६६। भगवई, ५२३७, २३८ ।
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नो आतोद्य शब्द
नो-भूषण- शब्द
ताल - शब्द
कंसिका - शब्द
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