________________
उत्तरज्झयणाणि
४४८
सूत्रकार ने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " जो द्रव्य में रहते हों तथा स्वयं निर्गुण हों, वे गुण हैं ऐसी परिभाषा की है। इसमें 'निर्गुण' शब्द अधिक आया है। इसकी तुलना महर्षि कणाद के 'अगुणवान्' शब्द से की जा सकती है। द्रव्य के आश्रय में रहने वाला वही 'गुण' गुण है जिसमें दूसरे गुणों का सद्भाव न हो अथवा जो निर्गुण हो । अन्यथा घट में रहा हुआ पानी भी घट द्रव्य का गुण बन जाता है।
यह माना जाता है कि प्राचीन युग में 'द्रव्य' और 'पर्याय' – ये दो शब्द ही प्रचलित थे। तार्किक युग में 'गुण' शब्द पर्याय के भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ ऐसा जान पड़ता है। कई आगम-ग्रन्थों में गुण और पर्याय शब्द भी मिलते हैं। परन्तु गुण 'पर्याय' का ही एक भेद है। अतः दोनों का अभेद मानना भी अयुक्त नहीं है। सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजयजी आदि मनीषी विद्वानों ने गुण और पर्याय के अभेद का समर्थन किया है। उनका तर्क है कि आगमों में गुण - पद का यदि पर्याय- पद से भिन्न अर्थ अभिप्रेत होता तो जैसे भगवान् ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो प्रकार से देशना की है, वैसे ही तीसरी गुणार्थिक देशना भी करते किन्तु ऐसा नहीं किया गया, इसलिए प्राचीनतम परम्परा में 'गुण' पर्याय का अर्थ-वाची रहा है। उत्तराध्ययन में पर्याय का लक्षण गुण से पृथक् किया गया है। इसे उत्तरकालीन विकास माना जा सकता है। द्रव्य के दो प्रकार के धर्म होते हैं (१) सहभावी और (२) क्रमभावी
।
सहभावी धर्म 'गुण' कहलाता है और क्रमभावी धर्म 'पर्याय' । 'गुण' द्रव्य का व्यवच्छेदक धर्म होता है, अन्य द्रव्यों से पृथक् सत्ता स्थापित करता है। वह दो प्रकार का होता है(१) सामान्य और - ( २) विशेष ।
सामान्य गुण छह हैं – (१) अस्तित्व, (२) वस्तुत्व, (३) द्रव्यत्व, (४) प्रमेयत्व, (५) प्रदेशत्व और (६) अगुरुलघुत्व ।
विशेष गुण सोलह है (१) गति हेतुत्य, (२) स्थिति-हेतुत्व, (३) अवगाह हेतुत्व, (४) वर्तना-हेतुत्व, (५) स्पर्श, (६) रस, (७) गन्ध, (८) वर्ण, (६) ज्ञान, (१०) दर्शन, (११) सुख, (१२) बीर्य, (१३) चेतनत्व, (१४) अचेतनत्य, (१५) मूर्त्तत्व और (१६) अमूर्तत्व
द्रव्य छह हैं— (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय (४) काल, (५) पुद्गलास्तिकाय और (६) जीवास्तिकाय । इन छहों में द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, नित्यत्व आदि सामान्य धर्म पाए जाते हैं। ये इनके सामान्य गुण हैं। ये द्रव्य के लक्षण नहीं बनते। छहों द्रव्यों में एक-एक व्यवच्छेदक-धर्म
१. तत्त्वार्थ सूत्र, ५४०
२. वैशेषिक दर्शन, १1१1१६ द्रव्याश्रय्य ऽगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् ।
३. गंगानाथ झा, पूर्व मिमांसा, पृ० ६५ ।
४. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५७-८।
Jain Education International
अध्ययन २८ : श्लोक ६ टि०६ विशेष-धर्म भी है जैसे धर्मास्तिकाय कागति हेतुत्व गुण, अधर्मास्तिकाय का स्थिति-हेतुत्व गुण, आकाशास्तिकाय काअवगाहना - हेतुत्व गुण आदि-आदि ।
वैशेषिक मत में संसार की सब वस्तुएं सात विभागों में वांटी गई हैं। उनमें 'गुण' का एक विभाग है। उनका मत है। कि कार्य का असमवायि कारण 'गुण' है अर्थात् अनपेक्ष होने पर भी जो कारण नहीं बनता, वह 'गुण' है। ये गुण चौबीस हैं- (१) रूप, (२) रस, (३) गन्ध, (४) स्पर्श, (५) संख्या, (६) परिणाम, (७) प्रत्य, (८) संयोग, (६) विभाग, (१०) परराय, (११) अपरत्व, (१२) गुरुत्व, (१३) द्रव्यत्व, (१४) स्नेह, (१५) शब्द, (१६) ज्ञान, (१७) सुख, (१८) दुःख, (१६) इच्छा, (२०) द्वेष, (२१) प्रयत्न, (२२) धर्म, (२३) अधर्म और (२४) संस्कार | गुण द्रव्य ही में रहते हैं । वे दो प्रकार के हैं- (१) विशेष और (२) साधारण रूप, रस, गन्ध, शब्द, ज्ञान, विशेष गुण हैं।
T
सुख आदि
प्रभाकर २१ गुण मानते हैं। वैशेषिक मत के २४ गुणों में से संख्या, विभाग, पृथक्त्व तथा द्वेष के स्थान पर 'वेग' का समावेश किया गया है।
भट्ट मत में १३ गुण माने गए हैं- (१) रूप, (२) रस, (३) गन्ध, (४) स्पर्श, (५) परिणाम, (६) पृथक्त्व, (७) संयोग, (८) विभाग, (६) परत्व, (१०) गुरुत्व, (११) अपरत्व, (१२) द्रवत्व और (१३) स्नेह |
सांख्य मत में सत्त्व, रज और तमस् ये तीन गुण माने गए हैं । उनका मत है कि इन्हीं तीन गुणों के संस्थान -भेद से वस्तुओं में भेद होता है। सत्त्व का स्वरूप है— प्रकाश तथा हलकापन, तमस् का धर्म है—अवरोध, गौरव, आवरण आदि और 'रजस्' का धर्म है— सतत क्रियाशील रहना । ६. पर्याय का (पज्जवाणं) :
जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित होता है, उसे 'पर्याय' कहा जाता है। विशेष के दो भेद हैं-गुण और पर्याय । द्रव्य का जो 'सहभावी धर्म' है, वह 'गुण' है और जो 'क्रमभावी धर्म' है, वह 'पर्याय' है। इसे 'पर्यव' भी कहा जाता है । न्यायालोक की तत्त्वप्रभा विवृत्ति में पर्याय की परिभाषा करते हुए लिखा है- “जो उत्पन्न होता है, विपत्ति (विनाश ) को प्राप्त होता है अथवा जो समग्र द्रव्य को व्याप्त करता है उसे 'पर्याय' (पर्यव) कहते हैं।” नयप्रदीप में भी यही व्याख्या दी गई है। वादिवेताल शान्तिसूरि के अनुसार समस्त द्रव्यों और समस्त गुणों में जो व्याप्त होते हैं, उन्हें 'पर्यव' कहा जाता है । ७
५. न्यायालोक, तत्त्वत्प्रभा विवृत्ति, पत्र २०३ पर्येत्युत्पत्तिं विपत्तिं चाप्नोति, पर्यवति वा व्याप्नोति समस्तमपि द्रव्यमिति पर्यायः पर्यवो वा ।
६.
७.
नयप्रदीप, पत्र ६६ पर्येति उत्पादमुत्पत्तिं विपत्तिं च प्राप्नोतीति पर्यायः । बृहद्वृत्ति, पत्र ५५७ : परि- सर्वतः - द्रव्येषु गुणेषु सर्वेष्ववन्तिगच्छन्तीति पर्यवाः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org