________________
खलुंकीय
६. इहीगारविए एगे एगेऽत्थ रसगारवे । सायागारविए एगे एगे सुचिरकोहणे ।।
१०. भिक्खालसिए एगे एगे ओमाणभीरुए थद्धे । एगं च अणुसासम्मी हेऊहिं कारणेहि य ।।
११. सो वि अंतरभासिल्लो दोसमेव पकुब्वई । आयरियाणं तं वयणं पडिकूलेइ अभिक्खणं ॥ १२. न सा ममं वियाणाइ न विसा मज्झ दाहिई । निग्गया होहिई मन्ने साहू अन्नोऽथ वच्चउ ।।
१३. पेसिया पलिउंचंति ते परियंति समंतओ । रायवेट्ठि व मन्नंता करेंति भिउहिं मुहे ।
१४. वाइया संगहिया चेव
भत्तपाणे य पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा पक्कमंति दिसोदिसिं ।।
१५. अह सारही विचिंतेइ खलुकेहिं समागओ । किं मज्झ दुसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई । । १६. जारिसा मम सीसाउ
तारिसा गलिगद्दहा । गलिगद्दहे चड़साणं दढं परिगिण्हइ तवं । । १७. मिउ महवसंपन्ने
गंभीरे सुसमाहिए। विहरड़ महिं महण्या सीलभूएण अप्पणा । ।
Jain Education International
-त्ति बेमि ।
४३३
ऋद्धिगौरविक एकः एकोत्र रसगौरवः । सातगौरविक एकः एक सुचिरक्रोधनः ।। भिक्षालस्यिक एकः एकोऽवमानभीरुकः स्तब्धः । एकं च अनुशास्ति हेतुभिः कारणैश्च ।।
सोप्यन्तरभाषावान् दोषमेव प्रकरोति । आचार्यणां तद् वचनं प्रतिकृतयत्यभीक्ष्णम्।।
न सा मां विजानाति नापि सा मह्यं दास्यति । निर्गता भविष्यति मन्ये साधुरन्योऽत्र व्रजतु ||
प्रेषिताः परिकुन्ति ते परियन्ति समन्ततः । राजवेष्टिमिव मन्यमानाः कुर्वन्ति भृकुटिं मुखे ।
यायिताः संगृहीताश्चैव भक्तपानेन च पोषिताः । जातपक्षा यथा हंसा: प्रक्रामन्ति दिशो दिशम् ।।
अथ सारथिर्विचिन्तयति खलुकैः श्रमागतः । किं मम दृष्टशिष्यैः आत्मा मे ऽवसीदति ।।
यादृशा मम शिष्यास्तु तादृशा गलिगर्दभाः । गलिगर्दभान् त्यक्त्वा दृढं परिगृह्णाति तपः ।।
मृदुमाईवसम्पन्नो
गम्भीरः सुसमाहितः। विहरति महीं महात्मा शीलभूतेनात्मना ।।
- इति ब्रवीमि ।
अध्ययन २७ : श्लोक ६-१७
कोई शिष्य ऋद्धि का गौरव करता है तो कोई रस का गौरव करता है, कोई साता-सुखों का गौरव करता है तो कोई चिर काल तक क्रोध रखने वाला है ।"
कोई" भिक्षाचारी में आलस्य करता है तो कोई अपमान - भीरू और अहंकारी है। किसी को गुरु हेतुओं व कारणों द्वारा अनुशासित करते है
तब वह बीच में बोल उठता है, मन में द्वेष ही " प्रकट करता है तथा बार-बार आचार्य के वचनों के प्रतिकूल आचरण करता है।
( गुरु प्रयोजनवश किसी श्राविका से कोई वस्तु लाने को कहे, तब वह कहता है) वह मुझे नहीं जानती, वह मुझे नहीं देगी, मैं जानता हूं, वह घर से बाहर गई होगी। इस कार्य के लिए मैं ही क्यों, कोई दूसरा साधु चला जाए।
किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है और वह कार्य किए बिना ही लौट आते हैं। पूछने पर कहते हैं-उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था ?२० वे चारों ओर घमते हैं किन्तु गुरु के पास नहीं बैठते । कभी गुरु का कहा कोई काम करते हैं। तो उसे राजा की बेगार" की भांति मानते हुए मुंह पर भृकुटि तान लेते हैं—मुंह को मचोट लेते हैं। (आचार्य सोचते हैं) मैंने उन्हें पढ़ाया, संगृहीत (दीक्षित) किया, भक्त-पान से पोषित किया, किन्तु कुछ योग्य बनने पर ये वैसे ही बन गए हैं, जैसे पंख आने पर हंस विभिन्न दिशाओं में प्रक्रमण कर जाते हैं दूर-दूर उड़ जाते हैं।
कुशिष्यों द्वारा खिन्न होकर सारथि (आचार्य) २३ सोचते हैं-इन दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या ? इनके संसर्ग से मेरी आत्मा अवसन्न-व्याकुल होती है।
जैसे मेरे शिष्य हैं वैसे ही गली-गर्दभ होते हैं। इन गली - गर्दभों को छोड़ कर गर्गाचार्य ने दृढ़ता के साथ तपः मार्ग को अंगीकार किया।
वह मृदु और मार्दव से सम्पन्न गम्भीर और सुसमाहित महात्मा शील-सम्पन्न होकर पृथ्वी पर विचरने लगा।
For Private & Personal Use Only
- ऐसा मैं कहता हूं।
www.jainelibrary.org