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इस अध्ययन में खलुंक (दुष्ट बैल) की उद्दण्डता के माध्यम से अविनीत की उद्दण्डता का चित्रण किया गया है, इसलिए इसका नाम 'खलुकिज्जं' – 'खलुंकीय' है ।
इस आगम-ग्रन्थ के प्रथम अध्ययन में विनीत और अविनीत के स्वरूप की व्याख्या की गई है। विनीत को पग-पग पर सम्पत्ति मिलती है और अविनीत को विपत्ति । अनुशासन विनय का एक अंग है। भगवान् महावीर के शासन में अनुशासन की शिक्षा-दीक्षा का बहुत महत्त्व रहा है। आत्मानुशासन अध्यात्म का पहला सोपान है । जो आत्म- शासित है, वही मोक्ष मार्ग के योग्य है। जो शिष्य अनुशासन की अवहेलना करता है, उसका न इहलोक सधता है और न परलोक ।
आंतरिक अनुशासन में प्रवीण व्यक्ति ही बाह्य अनुशासन को क्रियान्वित कर सकता है। जिसकी आंतरिक वृत्तियां अनुशासित हैं उसके लिए बाह्य अनुशासन, चाहे फिर वह कितना ही कठोर क्यों न हो, सरल हो जाता है।
यह अध्ययन प्रथम अध्ययन का ही पूरक अंश है। इसमें अविनीत शिष्य के अविनय का यथार्थ चित्रण किया गया है और उसकी 'खलुक' (दुष्ट बैल) से तुलना की गई है—
“दुष्ट बैल शकट और स्वामी का नाश कर देता है, यत्किंचित् देख कर संत्रस्त हो जाता है, जुए और चाबुक को तोड़ डालता है और विपथगामी हो जाता है।""
“अविनीत शिष्य खलुंक जैसा होता है। वह दंश-मशक
१. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ४८६ :
अवदाली उत्तसओ जोत्तजुगभंज तुत्तभंजो अ उप्पहविप्पहगामी एए खलुंका भवे गोणा ।।
आमुख
२. वही, गाथा ४६२ :
दंसमसगस्समाणा जलुयकविच्छुयसमा य जे हुति । ते किर होति खलुंका तिक्खम्मिउचंडमद्दविआ ।।
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की तरह कष्ट देने वाला, जलोक की तरह गुरु के दोष ग्रहण करने वाला, वृश्चिक की तरह वचन - कण्टकों से बींधने वाला, असहिष्णु, आलसी और गुरु के कथन को न मानने वाला होता है।
“वह गुरु का प्रत्यनीक, चारित्र में दोष लगाने वाला, असमाधि उत्पन्न करने वाला और कलह करने वाला होता है । "३
" वह पिशुन, दूसरों को तपाने वाला, रहस्य का उद्घाटन करने वाला, दूसरों का तिरस्कार करने वाला, श्रमण-धर्म से खिन्न होने वाला और मायावी होता है ।"*
स्थविर गणधर गार्ग्य मृदु, समाधि-सम्पन्न और आचारवान् गणी थे। जब उन्होंने देखा कि उनके सारे शिष्य अविनीत, उद्दण्ड और उच्छृंखल हो गए, तब आत्म-भाव से प्रेरित हो, शिष्य-समुदाय को छोड़, वे अकेले हो गए। आत्म-निष्ठ मुनि के लिए यही कर्त्तव्य है। जो शिष्य-सम्पदा समाधि में सहायक होती है वही गुरु के लिए आदेय है, अनुशासनीय है और जो समाधि में बाधक बनती है वह त्याज्य है, अवांछनीय है।
सामुदायिक साधना की समृद्धि के लिए है। वह लक्ष्य की पूर्ति के लिए सहायक हो तो उसे अंगीकार किया जाता है और यदि वह बाधक बनने लगे तो साधक स्वयं अपने को उससे मुक्त कर लेता है। यह तथ्य सदा से मान्य रहा है। यह अध्ययन उसी परम्परा की ओर संकेत करता है।
३.
उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ४६३ :
जे किर गुरूपडिणीआ सबला असमाहिकारगा पावा । अहिगरणकारगऽप्पा जिणवयणे ते किर खलुंका ।।
४. वही, गाथा ४६४ :
पिसुणा परोवतावी भिन्नरहस्सा परं परिभवंति । निव्विअणिज्ज्जा य सढा जिणवयणे ते किर खलुंका ।।
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