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टिप्पण
अध्ययन २७ : खलुंकीय
१. गर्गगोत्रीय (गग्गे)
३. गणधर (गणहरे) इसके दो संस्कृत रूप हैं...गर्ग और गार्ग्य । गर्ग व्यक्तिवाची इसके प्रमुख अर्थ दो हैं-तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य और शब्द है और गार्ग्य गोत्र सम्बन्धी। शान्त्याचार्य ने इसका अनुपम ज्ञान आदि के धारक आचार्य । संस्कृत रूप गार्ग्य देकर इसका अर्थ 'गर्गसगोत्रः' किया है। ४. विशारद (विसारए) नेमिचन्द्र ने इसे 'गर्ग' शब्द मानकर 'गर्गनामा' ऐसा अर्थ
चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है—उपकरणों का किया है।' स्थानांग सूत्र में गौतम-गोत्र के अन्तर्गत गर्ग-गोत्र संग्रह और परस्पर उपग्रह करने में कुशल व्यक्ति।' का उल्लेख हुआ है। इसलिए शान्त्याचार्य वाला अर्थ ही संगत
बृहवृत्ति में इसका मूल अर्थ -है--सभी शास्त्रों में लगता है। सरपेन्टियर ने लिखा है-यह गर्ग शब्द अति
कुशल, बहुश्रुत तथा वैकल्पिक अर्थ चूर्णि के समान है। प्राचीन है और वैदिक-साहित्य में इसका प्रयोग हुआ है। इसके
५. वह गुणों से आकीर्ण, गणीपद पर स्थित (आइण्णे निकट के शब्द गार्गी और गार्ग्य भी ब्राह्मण युग में सुविदित
गणिभावम्मि) रहे। संभव है उस समय में गर्ग नाम वाला कोई ब्राह्मण मुनि
चूर्णिकार ने 'आइण्णे गणिभावम्मि' का समन्वित अर्थ रहा हो और जैनों ने उस नाम का अनुकरण कर अपने साहित्य में उसका प्रयोग किया हो। उत्तराध्ययन में आए हुए
किया है---गणिभाव के प्रति आकीर्ण । तात्पर्यार्थ में आचार्य
के गुणों से युक्त। 'कपिल' आदि शब्द के विषय में भी ऐसा ही हुआ है। किन्तु
वृत्तिकार ने दोनों को स्वतंत्र मानकर आकीर्ण का ब्राह्मण लोग जैन-शासन में प्रव्रजित होते थे इसलिए ब्राह्मण
अर्थ--आचारसंपदा, श्रुतसंपदा आदि आचार्य गुणों से परिपूर्ण मुनि के नाम का अनुकरण कर यह अध्ययन लिखा गया। इस
किया है तथा गणिभाव का अर्थ-आचार्य के रूप में अवस्थित अनुमान के लिए कोई पुष्ट आधार प्राप्त नहीं है।
किया है। २. स्थविर (थेरे) शान्त्याचार्य ने 'थिरकरणा पूण थेरो' के आधार पर
६. प्रतिसंधान करता था (पडिसंधए)
शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'कर्मोदयसे नष्ट हुई अविनीत इसका अर्थ 'धर्म में अस्थिर व्यक्तियों को स्थिर करने वाला'
शिष्यों की समाधि का पुनः संधान करना-जोड़ना" और किया है। दशवैकालिक (६1819) की चूर्णि में स्थविर का अर्थ
नेमिचंद्र ने शिष्यों द्वारा तोड़ी गई समाधि का पुनः अपने आप 'गणधर' किया गया है। परन्तु यहां वह अर्थ नहीं है क्योंकि
में संधान करना किया है।२' इस अध्ययन की दृष्टि से दोनों इसका अगला शब्द 'गणहरे' है। साधारणतः जो मुनि प्रव्रज्या
अर्थ उचित हैं। और वय में वृद्ध होते हैं उन्हें 'स्थविर' कहा जाता है। मुनि
७. अयोग्य बैलों को (खलुके) के लिए स्थविर कल्प' नामक आचार विशेष का भी उल्लेख आया है जिसका अर्थ है 'गच्छ में रहने वाले मुनियों का
'खलुंक' और 'खुलुंक'--ये दोनों रूप प्रचलित हैं। आचार।
नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'दुष्ट वैल' किया है। स्थानांग वृत्ति
१. (क) बृहवृत्ति, पत्र ५५० : 'गार्ग्यः' गर्गसगोत्रः।
(ख) सुखबोधा, पत्र ३१६ : गर्गः गर्गनामा। २. ठाणं ७।३२ : जे गोयमा ते सत्तविधा पं.तं. ते गोयमा, ते गग्गा, ते
भारद्दा, ते अंगिरसा, ते सक्कराभा, ते भक्खराभा, ते उदत्ताभा। 3. The Uttaradhyayana Sutra, p. 372 ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५०।। ५. अगस्त्यचूर्णि : थेरो पुण गणहरो।
बृहवृत्ति, पत्र ५५० : गण-गुणसमूह धारयति-आत्मन्यवस्थापयतीति गणधरः।
७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २७० : विशारदहेतोः, संग्रहोपग्रहकुशलः
इत्यर्थः। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५०: विशारदः-कुशलः सर्वशास्त्रेषु संग्रहोपग्रहयोर्वा ।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २७० : गणिभावं प्रति आकीर्णः। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५०: आकीर्ण:-आचार्यगुणैराचार श्रुतसम्पदादिभिर्व्याप्तः
परिपूर्ण इति यावत, गणिभावे-आचार्यत्वे स्थित इति गम्यते। ११. वही, पत्र ५५० : प्रतिसंधत्ते कर्मोदयात् त्रुटितमपि संघट्टयति,
तथाविधशिष्याणामिति गम्यते। १२. सुखबोधा, पत्र ३१६ : प्रतिसंधत्ते कुशिष्यैस्त्रोटितमपि संघट्टयति आत्मन
इति गम्यते। १३. वही, पत्र ३१६ : खलुंकान् गलिवृषभान्।
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